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________________ ४,२, १०, ६] वैयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३०७ ठविय १३३ अक्खपरावत्ति कादूण पत्थारो उप्पादेदव्यो । एदस्स संदिट्टी जीव-पयडि ११११२२२२ समयपडिबद्धा एसा ११२२११२२ । एत्थ उवरिमपंती जीवाणं, मज्झिमपंती पयडीणं, १२१२१२१२ हेहिमपंती समयाणं । एत्थ एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया उवसंता वेयणा त्ति एदेण पढमालावेण एवं सुत्तं परविदं होदि । अणेगसमयपबद्धाणं संतसरूवेण उवलंभादो एत्थ कालबहुत्तमुवलब्भदे । सेसं सुगमं । एवं बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंताणमेगसंजोगस्स एगवयणसुत्तालावो समत्तो। सिया बज्झमाणियाओ वेयणाओ॥६॥ एदस्स एगसंजोग-बहुवयणपढमसुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे बज्झमाणियाए जीवपयडीणमेय-बहुवयणाणि समयस्स एगवयणं च ठविय तेसिं तिसंजोगेण जादपत्थारं च ठवेदूर्ण एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा—समयगयं ताव बहुत्तं णत्थि, बज्भमाणस्स कम्मस्स तदसंभवादो। जीवसु पयडीसु च' तत्थ बहुत्तं लब्भइ । तत्थ बज्झमाणियाए वेयणाए बहुत्तमिच्छिादि णेगमणओ। तेणेदस्स पढमुवचनको स्थापित कर १११ अक्षपरातन करके प्रस्तारको उत्पन्न कराना चाहिये। इसकी जीव, प्रकृति और समयसे सम्बन्धित संदृष्टि यह है जीव एक | एक एक एक अनेक अनेक अनेक अनेक प्रकृति एक एक अनेक अनेक एक एक अनेक अनेक समय एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक इसमें ऊपरकी पंक्ति जीवोंकी, मध्य पंक्ति प्रकृतियोंकी, और अधस्तन पंक्ति समयोंकी है। यहाँ एक जीवकी एक प्रकृति एक सभयमें बाँधी गई कथञ्चित् उपशान्त वेदना है, इस प्रकार इस प्रथम आलापसे इस सूत्रकी प्ररूपणा हो जाती है। चूंकि अनेक समयों में बाँधी गई प्रकृतियाँ सत स्वरूपसे पायी जाती हैं, अतः यहाँ कालबहुत्व उपलब्ध है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त, इनके एक संयोगजनित एकवचन सूत्रका आलाप समाप्त हुआ। कथंचित् वध्यमान वेदनार्य हैं ॥ ६॥ बध्यमान वेदनाके बहुवचनसे सम्बन्धित इस प्रथम सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते समय जीव और प्रकृतिके एक व बहुवचनोंको तथा समयके एकवचनको स्थापित कर उनके त्रिसंयोगसे उत्पन्न प्रस्तारको भी स्थापित करके इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैयहाँ समयगत बहुत्व नहीं है, क्योंकि, बध्यमान कर्मके उसकी सम्भावना नहीं है। जीवों और १ अप्रतौ 'जीवेसु पयडीसु जीवपयडीसु च' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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