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________________ ३६४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ४१. उक्कस्साणुभागेण सह उक्कस्सटिदिं बंधिय पडिभग्गपढमसमए वट्टमाणस्स भावे उक्कस्से संते कालो असंखेज्जभागहीणो होदि, अधहिदीए गलिदेगसमयत्तादो । पडिभग्गविदियसमए वि असंखेज्जभागहाणी चेव होदि, अघहिदीए गलिददुसमयत्तादो। एवं ताव द्विदीए असंखज्जभागहाणी होदि जाव द्विदिखंडयपढमसमओ त्ति । पुणो हिदिखंडयउक्कीरणद्धाए पढमसमए गलिदे वि असंखेज्जमागहाणी चेव । उक्की. रणद्धाए विदियसमए गलिदे वि असंखज्जभागहाणी चेव । एवं ताव असंखेज्जमागहाणी होदि जाव द्विदिखंडयउक्कीरणद्धाए दुचरिमसमओ गलिदो त्ति । अणुभागो पुण उक्कस्सो चेव, तस्स धादोभावादो। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ छिदिघादे हंमते अणुभागा आऊआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा' वि हु आउववजाण हिदिघादो ॥ १॥ अणुभागे हंमते हिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ठिदिघादेण विणा विहु आउववजाणमणुभागो ॥२॥) एवं गंतूण पढमडिदिखंडयचरिमफालीए उकीरणद्धाएं चरिमसमएण सह पदिदाए वि असंखेज्जभागहाणी चेव होदि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तसन्चजहण्णहिदिखंडयपमाणेण धादिदत्तादो । संपहि एदेणेव उक्कीरणकालेण पुविलाडिदिखंडयादो समउत्तरहिदिखंडए पादिदे उत्कृष्ट अनुभागके साथ उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभन्न होनेके प्रथम समयमें वर्तमान जीवके भावके उत्कृष्ट होनेपर काल असंख्यातवें भागसे हीन होता है, क्योंकि, अधःस्थितिके द्वारा एक समय गल चुका है। प्रतिभन्न होनेके द्वितीय समयमें भी असंख्यातभागहानि ही होती है, क्योंकि, अधःस्थितिमें दो समय गल चुके हैं। इस प्रकारसे स्थितिकाण्डकके प्रथम समयके प्राप्त होने तक स्थितिमें असंख्यातभागहानि होती है। तत्पश्चात् स्थितिकाण्डक उत्कीरणकालके प्रथम समयके गलनेपर भी असंख्तभागहानि ही होती है। उत्कीरणकालके द्वितीय समयके गलनेपर भी असंख्यातभागहानि ही होती है। इस प्रकारसे तब तक असंख्यातभागहानि होती है जब तक स्थितिकाण्डक-उत्कीरणकालका द्विचरम समय गलता है। परन्तु अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है. क्योंकि, उसके घातकी सम्भावना नहीं है। यहाँ उपयुक्त गाथायें स्थितिघातके होनेपर सब आयुओंके अनुभागोंका नाश होता है। आयुको छोड़कर शेष काँका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥१॥ __ अनुभागका घात होनेपर सब आयुओंका स्थितिघात होता है। स्थितिघातके बिना भी आयुको छोड़कर शेष कमों के अनुभागका घात होता है ॥२॥ इस प्रकार जाकर प्रथम स्थितिकाण्डक सम्बन्धी अन्तिम फालीके उत्कीर्णकाल सम्बन्धी अन्तिम समयके साथ पतित होनेपर भी असंख्यातभागहानि हो होती है, क्योंकि, सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका घात हुआ है ! अब इसी उत्कीरणकालसे पहिले स्थितिकाण्डककी अपेक्षा एक समय अधिक स्थितिकाण्डकका १ ताप्रतौ 'विण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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