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________________ daणसणियासविहाणाणियो गद्दारं तस्स कालो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ३६ ॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ॥ ४० ॥ जदि उक्साणुभागसँतेण सह उक्कस्सा हिदी पत्रद्धा तो भावेण सह कालो वि उक्कस्सो होदि । अध उक्कस्साणुभागे संते वि उक्कस्सियं द्विदिं ण बंधदि तो उक्तभावे णिरुद्धे कालो अणुक्कस्सो होदि । उक्कस्साणुभागं बंधमाणो णिच्छरण उक्कस्सियं चैव द्विदिं बंधदि, उक्कस्ससंकिले सेण विणा उक्कस्साणुभागबंधाभावादो । एवं संते कथमुक्कस्साणुभागे णिरुद्धे अणुक्कस्सट्ठिदीए संभवो त्ति ? ण एस दोसो, उक्करसाणुभागेण सह उक्कस्सट्ठिदिं बंधिय पडिभग्गस्स अघट्ठिदिगलणाए उक्कस्सहिदीद समऊणादिवियप्पुवलंभादो । ण च अणुभागस्स अधट्ठिदिगलणाए घादो अत्थि, सरिसधणियपरमाणूणं तत्थुवलंभादो । ण च उक्कस्साणुभागबंधस्स बद्धविदियसमए चेव घादो अस्थि, पडिभग्गपढमसमय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालो ण गदो ताव अणु-भागखंडयघादाभावादो । ४, २, १३, ४१. ] कस्सादो अणुकस्सा तिद्वाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा ॥ ४१ ॥ [ ३६३ उसके कालकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ||३६|| यह सूत्र सुगम है । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ४० ॥ यदि उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व के साथ उत्कृष्ट स्थिति बाँधी गई है तो भावके साथ काल भी उत्कृष्ट होता है । परन्तु यदि उत्कृष्ट अनुभाग के होनेपर भी उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बाँधता है तो उत्कृष्ट भाव विवक्षित होनेपर काल अनुत्कृष्ट होता है । शंका- चूंकि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव निश्चयसे उत्कृष्ट स्थितिको ही बाँधता है, क्योंकि, उत्कृष्ट संक्लेशके बिना उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता; अतएव ऐसी स्थिति में उत्कृष्ट अनुभागकी विवक्षा में अनुत्कृष्ट स्थितिकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागके साथ उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न हुए जीवके अधःस्थितिके गलनेसे उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय हीन आदि स्थिति विकल्प पाये जाते हैं । और अधः स्थितिके गलनेसे अनुभागका घात कुछ होता नहीं है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणु वहाँ पाये जाते हैं । यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट अनुभागबन्धका बन्ध होनेके द्वितीय समय में ही घात हो जाता है, तो यह भी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहुर्त काल नहीं बीत जाता है तब तक अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यात भागहीन, संख्यातभागहीन और संख्यातगुणहीन इन तीन स्थानों में पतित है ॥ ४१ ॥ छ. १२-५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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