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________________ ४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१६१ दिभागे चेव अणंतभागवड्डि-असंखेज्जभागवाड्डि-संखेज्जभागवडि-संखेज्जगुणवड्डीओ समत्ताओ त्ति संखेज्जभागवड्डिअद्धाणस्स असंखेज्जा भागा, संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डिअद्धाणाणि च संपुण्णाणि असंखेज्जगुणवाड्डिविसो होदि । संपहि पढमअट्ठकप्पहुडि जाव उव्वंके त्ति ताव अणंतगुणवड्डीए विसओ । एत्थ तिणि अणिओगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्यावहुंगं चेदि । परूवणाए अस्थि एगाणुमागदुगुणवड्डिहाणंतरंणाणादुगुणवड्डिसलागाओ च । पमाणं-एगाणुभागदुगुणवड्डिहाणंतरमंगुलस्स असंखेजदिभागो । णाणादुगुणवड्डिहाणंतरसलागारो असंखेजा लोगा। अप्पाबहुगं-एगाणुभागदुगुणवड्डिाणंतरं थोवं । णाणादुगुणवड्डिट्ठाणंतरसलागाओ असंखे. जगुणाओ। अवहारो-जहण्णट्ठाणफद्दयपमाणेण सव्वाणफद्दयाणि अणंतेण कालेण अवहिरिज्जति । एवं सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णट्ठाणप्पहुडि उवरिमट्ठाणपमाणेण सव्वट्ठाणाणि अणंतेण कालेण अवहिरिज्जति ति वत्तव्वं । णवरि चरिमअहंकप्पडि जाव पज्जवसाणउव्वंके ति ताव एदेसि हाणाणं पमाणेण सवट्ठाणेसु अवहिरिज्जमाणेसु असंखेज्नेण कालेण अवहिरिजंति, कंदयमेत्तअसंखेज्जलोगेसु कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्तउक्कस्ससंखेज्जेसु अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअसंखेज्जलोगअण्णोण्णभत्थरासीसु च परोप्परं गुणिदासु वि अणंतरासिसमुप्पत्तीए अभावादो । पज्जवसाण उव्वंकपमाणेण सव्व तवें भागमें ही अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये वृद्धियाँ चूंकि समाप्त हो जाती हैं, अतएव संख्यातभागवृद्धिअध्वानका असंख्यातबहुभाग तथा संख्यातगुणवृद्धि एवं असंख्यातगुणवृद्धिका सम्पूर्ण अध्वान असंख्यातगुणवृद्धिका विषय होता है। __अब प्रथम अष्टांकसे लेकर ऊर्वक तक अनन्तगुणवृद्धिका विषय है । यहाँ तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा. प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणाकी अपेक्षा-एकानुभागदगुणवृद्धिस्थानान्तर और नानादुगुणवृद्धिशलाकायें हैं। प्रमाण-एकानुभागदुगुणवृद्धिस्थानान्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । नानादुगुणवृद्धिग्थानान्तरशलाकायें असंख्यात लोक प्रमाण हैं। अल्पबहुत्व-एकानुभागदुगुणवृद्धिस्थानान्तर स्तोक है। उससे नानादुगुणवृद्धिस्थानान्तरशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। अवहारकी प्ररूपणा करते हैं-जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्द्धकके प्रमाणसे सब स्थानों के स्पर्द्धक अनन्तकालसे अपहृत होते हैं । इसी प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य स्थानसे लेकर आगेके स्थानोंके प्रमाणसे सब स्थान अनन्तकालसे अपहृत होते हैं, ऐसा कहना चाहिये। विशेष इतना है कि अन्तिम अष्टांकसे लेकर अन्तिम ऊवक तक इन स्थानोंके प्रमाणसे सब स्थानोंके अपहृत करनेपर वे असंख्यातकालसे अपहृत होते हैं, कारण कि काण्डक प्रमाण असंख्यात लोकों, काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण उत्कृष्ट संख्यातों और अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात लोकोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशियोंको परस्पर गुणित करनेपर भी अनन्त राशिके उत्पन्न होनेकी सम्भावनाका अभाव है । अन्तिम ऊवकके प्रमाणसे सब स्थानोंको अपहृत करनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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