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________________ १९२] छखंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, २१४. हासु अवहिरिज्ज माणेसु केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? एगवारमवहिरिज्जंति, चरिमुव्वंकम्मि सव्वाणाणमुवलंभादो | दुचरिमउव्वं कट्ठाण पमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जंति ? सादिरेयएगरूवेण । तिचरिमउच्चकद्वाणपमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जति १ सादिरेयए गरूवेण । एवं णेयच्वं जाव दुगुणहट्टवरिमाणं 'ति । पुणो दुगुणहीणहाणपमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेण अव हरिज्जति ? दोहि रूवेहि । तत्तो हेडिम द्वाणपमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? संखेज्जेहि रूवेहि । एवं यव्वं जाव पजवसाणउव्यंकट्ठाणं जहण्णपरितासंखेज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तअणुभागट्टाणस्स उवरिमाणं ति । तत्तो हेहिमहापमाणेण सव्वाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? जहण्णपरित्तासंखेज्जेण । एवं हेट्टिमअणुभागट्टाणाणं पमाणेण अवहिरिजमाणे असंखेज्जेण कालेन अवहिरिज्जति यव्वं जाव पढमअनंतगुणहाणीए उवरिमट्ठाणे ति ! सेसं चिंतिय वत्तत्रं गंधबहुतभरण जंण लिहिदल्लयं । अवहारो समत्तो । भागाभागो जधा अवहारकालो तथा वत्तव्यो । अप्पाबहुगं - सव्वत्थोवाणि जहफयाणि । अणुक्कस्सए द्वाणे फक्ष्याणि अनंतगुणाणि । को गुणगारो ? अवि वे कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? वे एक वार में अपहृत होते हैं, क्योंकि, अन्तिम ऊर्वक के सब स्थान पाये जाते हैं । द्विचरम ऊर्वकस्थान के प्रमाणसे सब स्थान कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे साधिक एक अंकके द्वारा अपहृत होते हैं । त्रिचरम ऊर्वक स्थान के प्रमाणसे वे कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे साधिक एक अंकके द्वारा अपहृत होते हैं | इस प्रकार दुगुणहीनस्थान से आगे के स्थान तक ले जाना चाहिये । पुनः दुगुणहीनस्थानके प्रमाणसे सब स्थान कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे दो अंकों के द्वारा अपहृत होते हैं। उससे नीचे के स्थानके प्रमाणसे वे कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे संख्यात अंकों द्वारा अपहृत होते हैं । इस प्रकार अन्तिम ऊर्वकस्थानको जघन्य परीता संख्यात से खण्डितकर उसमें से एक खण्ड मात्र अनुभागस्थानके उपरिम स्थानतक ले जाना चाहिये । उससे नीचे के स्थान के प्रमाणसे सब स्थान कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे जघन्य परीतासंख्यातके द्वारा अपहृत होते हैं । इस प्रकार से अधस्तन स्थानोंके प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे असंख्यात काल द्वारा अपहृत होते हैं, ऐसा प्रथम अनन्त गुणहानिके उपरिम स्थानतक ले जाना चाहिये । शेष अर्थ की प्ररूपणा विचारकर करना चाहिये, जो कि यहाँ ग्रन्थबहुत्वके भय से नहीं लिखा गया है । अवहार समाप्त हुआ । जैसा अवहारकाल कहा गया है वैसे ही भागाभागका कथन करना चाहिये । अल्पबहुत्वका कथन करते हैं - जघन्य स्थान में स्पर्द्धक सबसे स्तोक हैं । अनुत्कृष्ट स्थानमें उनसे अनन्तगुणे स्पर्द्धक हैं । गुणकार क्या है ? अविभागप्रतिच्छेदोंका आश्रय करके वह सब जीवांसे अनन्त १ ताप्रती 'जाव गुणहीणउवरिमाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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