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________________ ४, २, ७, २१५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१९३ भागपलिच्छेदे पडुच्च सव्वजीवेहि अणंतगुणो फद्दयगणणाए अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो । उक्कस्सए हाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि । एवं छहाणपरूवणा' समत्ता। हेट्टाहाणपरूवणाए अणंतभागभहियं कंदयं गंतूण असंखेजभागब्भहियं हाणं ॥२१५ ॥ असंखेज्जभागवड्डिहाणं णिरंभिय हेडिमट्ठाणाणं परूवणहमिदं सुत्तमागयं । अणंतभागब्भहियहाणाणं कंदयं गंतूण असंखेजभागवड्डिहाणमुप्पज्जदि । किं कंदयपमाणं ? अंगुलस्स असंखेज्जदिमागो । तस्स को भागहारो ? विसिवदेसाभावादो [ण] णबदे । फद्दयवग्गणप्पमाणं व सव्वकंदयाण पमाणं सरिसं । कुदो णव्यदे ? अरिसंवादिगुरुवयणादो। चरिमसमयसुहुमसांपराइयजहण्णाणुभागबंधट्टाणप्पहुडि दुचरिमादिअणुभागबंधहाणाणमणंतगुणवड्डिअणुभागबंधदसणादो "जहण्णहाणादो अणंतभागष्भहियं कदयं गंतूण असंखेज्जभागवड्डिाणं होदि" त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे ? ण एस दोसो, जत्थ छविहवड्डिकमेण छब्धिहहाणिकमेण च अणुभागो बज्झदि तमासेज्ज तधापरूविदत्तादो।ण गुणा है, तथा स्पर्द्धकगणनाकी अपेक्षा अभवसिद्धिकोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र है। उनसे उत्कृष्ट स्थानमें विशेष अधिक स्पर्द्धक हैं। इस प्रकार षट्स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। ___ अधस्तनस्थानप्ररूपणामें अनन्तवें भागसे अधिक काण्डक प्रमाण जाकर असंख्यातवें भागसे अधिक स्थान होता है ॥ २१५ ॥ __ असंख्यातभागवृद्धिस्थानकी विवक्षाकर नीचेके स्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये यह सुत्र आया है। अनन्तवें भागसे अधिक स्थानोंका काण्डक जाकर असंख्यातभागवृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है। काण्डकका प्रमाण कितना है ? उसका प्रमाण अंगुलका असंख्यातवाँ भाग है। उसका भागहार क्या है ? विशिष्ट उपदेशका अभाव होनेसे उसका परिज्ञान नहीं है । स्पर्द्धककी वर्गणाओं के प्रमाणके समान सब काण्डकोंका प्रमाण सदृश है। वह किस प्रमाण से जाना जाता है ? वह गुरुके विसंवाद रहित उपदेशसे जाना जाता है। शंका-अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके जघन्य अनुभागबन्धस्थानसे लेकर द्विचरम आदि अनुभागबन्धस्थानोंका अनुभागबन्ध चूँकि अनन्तगुणवृद्धि युक्त देखा जाता है, अतरव "जघन्य स्थानसे अनन्तवें भागसे अधिक काण्डक जाकर असंख्यातभागवृद्धिका स्थान होता है" ऐसा जो कहा गया है वह घटित नहीं होता है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जहाँपर छह प्रकारकी वृद्धि अथवा छह प्रकारकी हानिके क्रमसे अनुभाग बंधता है उसका आश्रय करके उस प्रकारकी प्ररूपणा की गई १ अ-याप्रत्योः 'छट्टणवपरूवणा' इति पाठः । २ अ-याप्रत्योः 'विसुट्टवदेसाभावो णव्वदे' इति पाठः । ३ अप्रतौ 'वड्ढदि' इति पाठः। छ. १२-२५ Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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