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________________ ४, २, १३, २६५. ] वयणसण्णियासविहाणा णियोगद्दारं [ ४६१ जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा विद्वाणपदिदा ॥ २६४ ॥ सुद्वय विसयख विद कम्मं सियलक्खणेण आगंतूण खीणकसायचरिमससए द्विदस्स णाणावरणीय वेणा सह दंसणावरणीय अंतराइयाणं च दव्ववेयणा जहण्णा होदि । अध aurat as आगदो होज्ज तो अजहण्णा होतॄण दुट्ठाणपदिदा | संपहि पज्जवडियणयाहमुत्तरमुत्तं भणदि भाभयिावा असंखेजभागन्भहिया वा ॥ २६५ ॥ णाणावरणीयस्स जहण्णदव्वे संते जदि एगो परमाणू दंसणावरणीय - अंतराइयाणं दव्वे अहियो होज्ज तो अनंतभागन्महियं दव्वं होदि । एदमादि काढूण परमाणुत्तरादिकमेण ताव अनंतभागवड्डी गच्छदि जाव जहण्णदव्त्रमुक्कस्सअसंखेज्जेण खंडिदूण तत्थ एगखंडमेत्तं वड्डिदं ति । तदो पहुडि परणुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डी होण गच्छदि जाव जहण्णदव्वं तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ खंडमेतं वदिति । उवरिमवड्डीओ एत्थ किष्ण भण्णंति ? ण, खविदकम्मं सिए जदि सु बहुगी दव्ववड्डी होदि तो एगसमयपबद्धमेत्ता चेव होदि त्ति गुरूव एसादो । वह जघन्य होती है और अजघन्य होती है, जघन्यसे अजघन्य दो स्थानों में पतित है || २६४ ॥ शुद्ध नयके विषयभूत क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना के साथ दर्शनावरणीय और अन्तरायकी द्रव्यवेदना जघन्य होती | अथवा यदि अन्य स्वरूपसे आया है तो उक्त दोनों कर्मोंकीद्र व्यवेदना अजघन्य होकर दो स्थानों में पतित होती है । अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थं आगेका सूत्र कहते हैं - हुए वह अजघन्य वेदना अनन्तभाग अधिक और असंख्यातभाग अधिक होती है ॥२६५॥ ज्ञानावरणीयके द्रव्यके जघन्य होनेपर यदि एक परमाणु दर्शनावरणीय और अन्तरायके द्रव्योंमें अधिक होता है तो अनन्तभाग अधिक द्रव्य होता है। इससे लेकर एक एक परमाणु आदिके क्रमसे तब तक अनन्तभागवृद्धि जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यात से खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड मात्र वृद्धिको प्राप्त होता है । पश्चात् इससे लेकर एक एक परमाणु आदिके क्रमसे जघन्य द्रव्यको तत्प्रायोग्य पत्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें से एक खण्ड मात्र वृद्धिके होने तक असंख्यात भागवृद्धि होकर जाती है । शङ्का- आगेकी वृद्धियाँ यहाँ क्यों नहीं कही गई हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षपितकर्माशिक के यदि बहुत अधिक द्रव्यकी वृद्धि होती है तो वह एक समयप्रबद्ध प्रमाण ही होती है, ऐसा गुरुका उपदेश है। १ प्रतिषु 'भणंति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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