SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, १३, २६. ] वे सणयासविहाणा णियो गद्दारं [ ३८७ एत्थ उकस्सदव्वे णिरुद्धे जहा भावस्स छट्टाणपदिदत्तं परुविदं तहा एत्थ वि णिस्सेसं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । जस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सा तस्स दव्वदो किमुकस्सा अणुक्कस्सा ॥ २४ ॥ एत्थ उकस्सपदअ। दिट्ठिदकिंसदो अणुक्कस्सपदे वि जोजेयव्वो । सेसं सुगमं । उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ २५ ॥ गुणिदक मंसियलक्खणेणागदचरिमसमयणेरइएण कय उकस्सदव्वेण उक्कस्सट्टिदीए पबद्धाए उकस्सकालवेयणाए सह दव्वं पि उक्करसं होदि । उक्कस्सकालेण सह एगादिपरमाणुपरिहीणउक्करसदव्वे कदे दव्ववेयणा अणुक्कस्सा होदि । उकस्सादो अणकस्सा पंचट्टाणपदिदा ॥ २६ ॥ तं जहा - उकस्सकाल सामिणो' एगपदेसूणउकस्सदव्वे कदे दव्वमणंत भागहीणं होदि । तेणेव दुपदेसूणुकस्सदव्वसंचए कदे दव्वमणंतभागहीणं चेव होदि । तिपदेसूणुकसदव्वसंच कदे वि अनंतभागहीणं चेव होदि । एवं ताव उक्कस्सकाल सामिदव्यमणंतभागहाणी गच्छदि जाव जहण्णपरित्ताणंतेण उक्कस्तदव्वं खंडेदूण तत्थ एगखंडेण यहाँ उत्कृष्ट द्रव्यकी विवक्षा होनेपर जिस प्रकार भावके छह स्थानोंमें पतित होनेकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहाँपर भी उसकी पूर्ण रूपसे प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २४ ॥ यहाँ उत्कृष्ट पदके आदिमें स्थित 'किं' शब्दको अनुत्कृष्ट पदमें भी जोड़ना चाहिये । शेष कथन सुगम है । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ।। २५ ।। गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आया है और जिसने द्रव्यको उत्कृष्ट किया है उस अन्तिम समयवर्ती नारक जीवके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर उत्कृष्ट काल वेदना के साथ द्रव्य भी उत्कृष्ट होता है । तथा उत्कृष्ट कालके साथ एक आदिक परमाणुसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यके करनेपर द्रव्य वेदना अनुत्कृष्ट होती है । वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना पाँच स्थानों में पतित है ।। २६ ॥ वह इस प्रकारसे उत्कृष्ट कालवेदना के स्वामी द्वारा एक प्रदेश कम उत्कृष्ट द्रव्यके करनेपर यह द्रव्य अनन्तवें भागसे हीन होता है। उक्त जीवके द्वारा ही दो प्रदेश कम उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करनेपर द्रव्य अनन्तभागहीन ही होता है। तीन प्रदेश कम उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करनेपर भी द्रव्य अनन्तभागहीन ही होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट कालवेदना के स्वामीका द्रव्य तब तक अनन्तभागहानिरूप होकर जाता है जब तक कि वह उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित १ - श्रा-का-ताप्रतिषु 'सामिश्रो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy