SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २६. परिहीणं ति । पुणो हेट्ठा वि अणंतभागहाणी चेव होदण गच्छदि जाव उक्कस्सअसंखेज्जेण उक्कस्सदव्वं खंडेदण तत्थ एगखंडेण परिहीण उक्स्सदव्वं ति । तत्तो पहुडि असं. खेज्जमागहाणी चेव होदण गच्छदि जाव उक्कस्सदव्वं उकस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थेगखंडेण परिहीणुक्कस्सदव्वे त्ति । तत्तो पहुडि संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जाव उक्कस्सदव्वस्स' अद्धं चेट्ठिदं ति । तत्तो प्पहुडि संखेज्जगुणहाणीए णेदव्वं जाव उक्कस्सदव्वं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदूण एगखडं चेद्विदं ति । ततो पहुडि असंखेज्जगुणहाणी चव होदूण गच्छदि जाव उकस्सदव्वस्स तप्पाओग्गो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो जादो त्ति । णवरि सव्वत्थ' कालो उक्कस्सो चेवे त्ति वत्तव्वं । संपहि' सव्वजहण्णदव्वपरूवणं कस्सामो। तं जहा-खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि सम्मत्तकंदयाणि अणंताणुबंधिविसंजोयण'. कंदयाणि च कादूण पुचकोडाउअमणुस्सेसु उववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सिओ संजमं पडिवण्णो । तदो देसूणपुरकोडिं संजमगुणसेडिणिजरं करेमाणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे मिच्छत्तं गंतूण णाणावरणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो जादो । तस्स कालवेयणा ............. करके उसमेंसे एक खण्डसे हीन नहीं हो जाता है । फिर नीचे भी अनन्तभागहानि ही होकर उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्डसेम्हीन उत्कृष्ट द्रव्यके होने तक जाती है। वहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें से एक खण्डसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यके होने तक असंख्यातभागहानि ही होकर जाती है । यहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यका अर्ध भाग स्थित होने तक संख्यातभागहानि होकर जाती है। पश्चात् वहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके उसमें से एक खण्डके स्थित होने तक संख्यातगुणहानिसे ले जाना चाहिये । यहांसे लेकर उत्कृष्ट द्रव्यका तत्प्रायोग्य पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग भागहार होने तक असंख्यातगुणहानि ही होकर जाती है । विशेषता यह है कि सर्वत्र काल उत्कृष्ट ही रहता है, ऐसा कहना चाहिये। ____ अब सर्वजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सम्यक्त्वकाण्डकों व संयमासंयमकाण्डकोंको, आठ संयमकाण्डकों व अनन्तानुबन्धिविसंयोजन काण्डकोंको करके पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । वहाँ गर्भसे से लेकर आठ वर्षका होकर संयमको प्राप्त हुआ। पश्चात् कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमगुणश्रेणिनिर्जराको करते हुए उसके संसारके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर ज्ञानावरणीयका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध हुआ । उसके कालवेदना उत्कृष्ट होती है । परन्तु द्रव्यवेदना १ ताप्रती 'दव्वं' इति पाठः । २ का-ता प्रत्योः 'पाश्रोग्ग-' इति पाठः। ३ श्र-पा-काप्रतिषु 'सव्वत्थो' इति पाठः। ४ अ-श्रा-का-ताप्रतिषु 'संपहि' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते, मप्रतौ तूपलभ्यते तत् । ५ श्र-पा-काप्रतिषु संजोयण' इति पाठः। ६ अ-अा-ताप्रतिषु 'देसूणपुवकोडिसंजम', काप्रती 'देसूणपुवकोडाउअमणस्सेसु उववण्णो संजम- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy