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________________ ३८० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, १४ हीण-संखेज्जगुणहीण-असंखेज्जगुणहीण-अणंतगुणहीणसरूवेण' अवविदछट्ठाणेसु पदिदो होदि । कथमेकसंकिलेसादो असंखेज्जलोगमेत्तअणुभागछट्ठाणाणं बंधो जुज्जदे ? ण एस दोसो, एक्कसंकिलेसादो असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणसहिदअणुभागबंधज्मवसाणट्ठाणसहकारिकारणाणं भेदेण सहकारिकारणमेत्तअणुभागट्टाणाणं बंधाविरोहादो। तेसिं छट्ठाणाणं णामणिदेसट्टमुत्तरसुत्तं भणदि अणंतभागहीणा वा असंखेजभागहीणा वा संखेजभागहीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा अणंतगुणहीणा वा ॥१४॥ __णेरड्यदुचरिमसमए उकस्ससंकिलेसेण अणंतभागहीणउक्कस्सविसेसपच्चएण अणंतभागहीणउकस्सअणुभागंबंधिय गेरइयचरिमसमए वट्टमाणस्स अणुभागो उक्कस्साणुभागादो अणंतभागहीणो । दुचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसेण चरिम-दुचरिमपक्खेवेहि ऊणमणुभागं बंधिय चरिमसमए वट्टमाणस्स सगुकस्साणुभागादो अणंतभागहाणी चेव । एवमंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअणंतभागवड्डिपक्खेवे जाव परिवाडीए हाइदूण बंधदि ताव अणंतभागहाणी चेव । पुणो पुविल्लअणंतभागवड्डिपक्खेवेहि सह असंखेज्जमागवड्डिपक्खेवे हीन; संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन स्वरूपसे अवस्थित छह स्थानपतित होता है। . शंका-एक संक्लेशसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग सम्बन्धी छह स्थानोंका बन्ध कैसे बन सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक संक्लेशसे, असंख्यात लोक प्रमाण छह स्थानोंसे सहित अमुभागबन्धाभ्यवसानस्थानोंके सहकारी कारणों के भेदसे सहकारी कारणों के बराबर अनुभागस्थानोंके बन्धमें कोई विरोध नहीं आता। __ उन छह स्थानोंके नामोंका निर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं वह अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन होती है ॥ १४ ॥ _नारक भक्के द्विचरम समयमें अनन्तभागहीन उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय संयुक्त उस्कृष्ट संक्लेशसे अनन्तभागहीन उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर नारक भवके चरम समयमे वर्तमान उक्त नारकीका अनुभाग उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन होता है। द्विचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशसे चरम और द्विचरम प्रक्षेपासे हीन अनुभागको बाँधकर चरम समयमें वर्तमान नारकी जीवके अपने उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अनन्तभागहानि ही होती है। इस प्रकार जब तक वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपोंको परिपाटीक्रमसे हीन करके अनुभागको बाँधता है तब तक अनन्तभागहानि ही चालू रहती है। बत्पश्चात् अनन्तभागवृद्धि प्रक्षेपों के साथ असंख्यातभागवृद्धि प्रक्षेपोंको हीन करके अनुभागके पूर्वोक्त १ अप्रतौ -'हीणकमेण सरूवेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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