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________________ ४७२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ३०१. जहण्णा ॥३०१॥ कुदो ? खवगपरिणामेहि सव्वुक्कस्सं घादं पाविदूण खीणकसायचरिमसमए द्विदत्तादो। तस्स वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३०२ सुगम। णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया॥३०३॥ कुदो ? परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण बद्धअपञ्जत्तसंजुत्ततिरिक्खाउआणुभागं, भवसिद्धियचरिमसमयअसादावेदणीयजहण्णाणुभागं, सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तएण हदसमुप्पत्तियकम्मेण परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण बद्धणामजहण्णाणुभागं, उच्चागोदमुव्वेल्लिय बादरतेउ-वाउजीवेण सव्वाहि पञ्जत्तीहि पञ्जत्तयदेण सव्वविसुद्धण बद्धणीचागोदजहण्णाणुभागं च पेक्खिदूण एदस्स खीणकसायस्स चरिमसमए वट्टमाणस्स एदेसिं कम्माणं अणुभागस्स अणंतगुणत्तं होदि, वेयणीय-णामा-गोदाणुभागाणं पसत्थभावेण उक्कस्सत्तव लंभादो । मणुसाउअभावस्स घादव जियस्स तिरिक्खाउआदो पसत्थस्स जहण्णादो अणंतगुणत्तं होदि, । [ कुदो णव्वदे १ ] चउसट्ठिवदियअप्पाबहुगवयणादो । वह जघन्य होती है ॥ ३०१॥ कारण कि वह क्षपक परिणामोंके द्वारा सर्वोत्कृष्ट घातको प्राप्त होकर क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित है। उसके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकी वेदना भाव की अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥३०२॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है। ३०३ ॥ इसका कारण यह है कि परिवर्तमान मध्यम परिणामके द्वारा बाँधे गई अपर्याये सहित तिथंच आयुके अनुभागकी अपेक्षा, भव्यसिद्धिक अवस्थाके अन्तिम समयमें असाता वेदनीयके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा, हतसमुत्पत्तिककर्मा सूक्ष निगोद अपर्याप्तक जीवके द्वारा परिवर्तमान मध्यम परिणामके द्वारा बाँधे गये नाम कर्मके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा, तथा उच्च गोत्रकी उद्वेलना करके सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुए सर्व विशुद्ध बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवके द्वारा बाँधे गये नीच गोत्रके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा क्षीणकषायके अन्तिम समयमें वर्तमान इस जीवके इन कर्मोंका अनुभाग अनन्तगुणा होता है; क्योंकि प्रशस्त होनेके कारण वेदनीय, नाम और गोत्रके अनुभागमें उत्कृष्टता पायी जाती है। तिर्यंच आयुकी अपेक्षा प्रशस्त व घातसे रहित मनुष्यायुका अनुभाग जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होता है। [शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह ] चौंसठ पद रूप अल्पबहुत्वके वचनसे जाना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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