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________________ (७) अधस्तनस्थानप्ररूपणा--इसमें अनन्तभागवृद्धिसे लेकर प्रत्येक वृद्धि जब काण्डक प्रमाण हो लेती है तब अगली वृद्धि होती है। अनन्तगुणवृद्धिके प्राप्त होनेतक यही क्रम चालू रहता है। यह बतलाकर एक षट्स्थानवृद्धिमें अनन्तभागवृद्धि कितनी होती हैं, संख्यातभागवृद्धि कितनी होती हैं आदिका निरूपण किया गया है। (८) समयप्ररूपणा--जघन्य अनुभागबन्धस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान तक जितने अनुभागबन्धस्थान होते हैं उनमें से एक समयसे लेकर चार समयतक बन्धको प्राप्त भागबन्धस्थान असंख्यातलोक प्रमाण है। पचि समय बधनवाले अनुभागबन्धस्थान भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इसप्रकार चार समयसे लेकर आठ समयतक बंधनेवाले अनुभागबन्धस्थान और पुनः सात समयसे लेकर दो समयतक बँधनेवाले अनुभागबन्धस्थान प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण हैं । यह बतलाना समयप्ररूपणाका कार्य है। साथ ही यद्यपि ये सब स्थान असंख्यातलोकप्रमाण हैं फिर भी इनमें सबसे थोड़े कौन अनुभागबन्धस्थान हैं और उनसे आगे उत्तरोत्तर वे कितने गुण हैं यह बतलाना भी इस प्ररूपणाका कार्य है। (९) वृद्धिप्ररूपणा--इस प्ररूपणामें पहले अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियोंका व अनन्तभागहानि आदि छह हानियोंका अस्तित्व स्वीकार करके उनके कालका निर्देश किया गया है। . . (१०)यवमध्यप्ररूपणा-समय प्ररूपणामें छह वृद्धियों और छह हानियोंका किसका कितना काल है यह बतला आये हैं। तथा वहाँ उनके अल्पबहुत्वका भी ज्ञान करा आये हैं। फिर भी किस वृद्धि और हानिसे यवमध्यका प्रारम्भ और अन्त होता है यह बतलाने के लिए यवमध्यप्ररूपणा की गई है। यद्यपि यवमध्य कालयवमध्य और जीवयवमध्यके भेदसे दो प्रकारका होता है पर यहाँ पर कालयवमध्यका ही ग्रहण किया है, क्योंकि इसमें वृद्धियों और हानियोंके कालकी मुख्यतासे ही इसकी रचना की गई है। (११) पर्यवसानप्ररूपणा--अनन्तगुणवृद्धिरूप काण्डकके जार पाँच वृद्धिरूप सब स्थान जाकर पुनः अनन्तगुणवृद्धि रूप स्थान नहीं प्राप्त होता, यह बतलाना इस प्ररूपणाका कार्य है। (११) अल्पबहत्वप्ररूपणा--इसके दो भेद हैं-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधा अल्पबहुत्वमें अनन्तगुणवृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार आगे संख्यातगुणवृद्धिस्थान, संख्यातभागवृद्धिस्थान, असंख्यातभागवृद्धिस्थान और अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं, यह बतलाया गया है। तथा परम्परोप नधा अल्पबहुत्वमें अनन्तभागवृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धि स्थान असंख्यातगुणे हैं। तथा इनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान संख्यातगुण हैं आदि बतलाया गया है। इस प्रकार अनुभागबन्धस्थानके आश्रयसे यह प्ररूपणा समाप्त कर अन्तमें वीरसेन स्वामीने अनुभागसत्कर्मके आश्रयसे यह सब विचार कर दूसरी चूलिका समाप्त की है। तीसरी चूलिकामें जीवसमुदाहारका विचार किया गया है। इसके ये आठ अनुयोगद्वार है-एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । (१) एकस्थानजीवप्रमाणानुगम-एक स्थानमें जघन्यरूपसे जीव एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्टरूपसे श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं, यह बतलाना इस प्ररूपणाका कार्य है। Jain Education International national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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