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________________ ४, २, १३, ६७.1 वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [४०३ किस्सा वि होदूण चउहाणपदिदा । तं जहा–एगो गुणिदकम्मंसियो हेरइयचरिमसमए उक्कस्सं दव्वं काऊण णिग्गंतूण पंचिंदियतिरिक्खेसु उप्पन्जिय दो तिण्णिमवग्गहणाणि एइंदिएसु गमिय पुणो पच्छा मणुस्सेसुप्पज्जिय गमादिअट्ठवस्सियो संजमं पडिवण्णो । पुणो सव्वलहुएण कालेण खवगसे डिमारुहिय चरिमसमयसुहमसांपराइयो होदूण उक्क. स्साणुभागो पबद्धो, तस्स दबवेयणा असंखेज्जभागहीणा, गुणसेडिणिज्जराए गलिदासंखेज्जसमयपबद्धत्तादो। एत्तो प्पहुडि एगेगपरमाणुहाणिकमेण असंखेज्जभागहाणिसंखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीयो जाणिदण दव्वस्स परूवेदव्याओ जाव खविदकम्मंसियसव्वजहण्णदव्वं' हिदं ति ।। तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥६५॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ॥६६॥ जदि लोगपूरणे सजोगिकेवली वट्टदि तो भावेण सह खेत्तं पि उक्करसं होदि । अध ण वट्टदि भावो चेव उक्कस्सो, ण खेतं; लोगपूरणं मोत्तूण तस्स अण्णत्थ उक्कस्सत्ताभावादो। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा विट्ठाणपदिदा असंखेजभागहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ।। ६७॥ गुणितकौशिक जीव नारक भवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट द्रव्यको करके वहाँ से निकलकर पंचेन्द्रिय तिथंचोंमें उत्पन्न हो एकेन्द्रिय जीवोंमें दो तीन भवग्रहणोंको विताकर फिर पीछे मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्षका हो संयमको प्राप्त हुआ। पश्चात् सर्वलघु कालमें आपक श्रेणिपर चढ़कर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धको प्राप्त हुआ। उसके द्रव्यवेदना असंख्यातभागहीन होती है, क्योंकि, उसके गुणश्रेणिनिर्जरा द्वारा असंख्यात समयप्रबद्ध गल चुके हैं। यहाँ से लेकर एक एक परमाणुकी हानिके क्रमसे क्षपितकर्माशिकके सर्वजघन्य द्रव्यके स्थित होने तक द्रव्यके विषयमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिकी जानकर प्ररूपणा करनी चाहिये। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनत्कृष्ट भी ।। ६६ ॥ यदि सयोगकेवली लोकपूरण समुद्धातमें प्रवर्तमान हैं लो भावके साथ क्षेत्र भी उस्कृष्ट होता है। और यदि उसमें प्रवर्तमान नहीं हैं तो भाव ही उत्कृष्ट होता है, क्षेत्र उत्कृष्ट नहीं होता, क्योंकि, लोकपूरण समुद्घातको छोड़कर अन्यत्र उसकी उत्कृष्टताका अभाव है। उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट असंख्यातभागहीन और असंख्यातगणहीन इन दो स्थानों में पतित है ॥ ६७ ॥ १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सव्वलहुएण दव्वं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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