SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,०२, १३, ६८. उक्कस्समावेण सह मंथे वट्टमाणस्स खेत्तं लोगपूरणखेत्तादो असंखेज्जमागहीणं, वादवलयावरुद्धखेतमेत्तेण परिहीणत्तादो। सत्थाण-दंड-कवाडगदकेवलिखेत्ताणि उक्कसाणुभागसहचडिदाणि पुण असंखेज्जगणहीणाणि, एदेहि तीहि वि खेत्तेहि पुध पुध घणलोगे भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलंभादो। तेण दुट्टाणपदिदा चेव अणुक्कस्सवेयणा त्ति सिद्ध। तस्स कालदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ६८॥ सुगम । णियमा अणुक्कस्सा असंखेजगुणा ॥ ६६ ॥ जत्थ वेयणीयभाववेयणा उक्कस्सा तत्थ तस्स कालवेयणा अणुक्कस्सा चेव, सुहुमसांपराइयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेतद्विदीए अंतोमुहुत्तमेत्ताए वा उवलंभादो । होता वि असंखेज्जगुणहीणा चेव, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण तीसंकोडाकोडिसागरोवमेसु ओवट्टिदेसु असंखेज्जरूवोवलंभादो। एवं णामा-गोदाणं ॥ ७० ॥ जहा वेयणीयस्स उक्कस्ससण्णियासो कदो तहा णामा-गोदाणं पि कायन्वो, उत्कृष्ट भावके साथ मंथ समुद्घातमें वर्तमान केवलीका क्षेत्र लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान केवलीके क्षेत्रसे असंख्यातभागहीन होता है, क्योंकि, वह वातवलयसे रोके गये क्षेत्रके प्रमाणसे हीन है। उत्कृष्ट अनुभागके साथ आये हुए स्वस्थान, दण्डसमुद्घात और कपाटसमुद्घातको प्राप्त केवलीके क्षेत्र उससे असंख्यातगुणे हीन होते हैं, क्योंकि, इन तीनों ही क्षेत्रोंका पृथक , लोकमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। इस कारण अनुत्कृष्ट वेदना दो स्थानोंमें पतित है, यह सिद्ध है। उसके कालकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६८॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृप्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ६६ ॥ जहाँ वेदनीयकी भाववेदना उत्कृष्ट होती है, वहाँ उसकी कालवेदना अनुत्कृष्ट ही होती है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानसे लेकर आगे सब जगह पल्योपमके असंख्यात भाग मात्र स्थिति अथवा अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति पायी जाती है। उतनी मात्र होकर भी वह असंख्यातगुणी हीन ही होती है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागका तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंमें भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं। इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्मोके विषयमें भी उक्त प्ररूपणा करनी चाहिये ॥७॥ जिस प्रकार वेदनीय कर्मके विषयमें उत्कृष्ट संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकार नाम और १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'उक्करसम्भावेण' इति पाठ । २ श्रा-काप्रत्योः ‘मववट्टमाणस्स', ताप्रती 'मंथे (मच्छे) वट्टमाणस्स' इति पाठः। ३ अप्रती 'संखेजगुणा' इति पाठः। ४ अ-श्राप्रत्यो 'अंतोमुहत्तमेत्ताणं उवलंभादो' काप्रतौ 'अंतोमुहत्तमेत्ताणि उवलंभादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy