SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, १०. सुगमं । मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीसं पयडीओ॥ १०॥ तं जहां-मिच्छत्त-'सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-अणंताणुवंधि अपचक्खाणावरणीय-पच्चक्खाणावरणीय-संजुलण-कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-अरइ-सोग-भय दुगुंछित्थि-पुरिसणqसयभेएण मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस सत्तीयो। एसा वि परूवणा असुद्धदव्यट्ठियणयमवलंबिऊण कदा। पञ्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे मोहणीयस्स असंखेजलोगमेतीयो होति, असंखेजलोगमेत्तउदयट्ठाणण्णहाणुववत्तीदो। एत्थ पुण पज्जवट्ठियणो किण्णावलंविदो ? गंथबहुत्तभएण अत्थावत्तीए तदवगमादो वा णावलंविदो । एवदियाओ पयडीओ॥११॥ जेण मोहणीयस्स अट्ठावीस सत्तीओ तेण पयडीओ वि अट्ठावीसं होंति, एदाहिंतो पुधभूदमिण्णजादिसत्तीए अणुवलंभादो। आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडोओ ॥ १२॥ सुगमं । यह सूत्र सुगम है। मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं ॥ १० ॥ यथा-मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भेदसे मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस शक्तियाँ हैं। यह भी प्ररूपणा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके की गई है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तो मोहनीय कर्मकी असंख्यात लोक मात्र शक्तियाँ हैं, क्योंकि, अन्यथा उसके असंख्यात लोक मात्र उदयस्थान वन नहीं सकते। शंका-तो फिर यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन क्यों नहीं लिया गया है ? समाधान-ग्रन्थबहुत्वके भयसे अथवा अर्थापत्तिसे उनका परिज्ञान हो जानेसे उसका अवलम्बन नहीं लिया गया है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ११ ॥ चूँकि मोहनीयकी शक्तियाँ अट्ठाईस हैं अतः उसकी प्रकृतियाँ भी अट्ठाईस ही हैं, क्योंकि, . इनसे पृथग्भूत भिन्नजातीय शक्ति नहीं पायी जाती। आयुकर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १२ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त', ताप्रतौ 'मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-[ सम्मत्त ]' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy