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________________ ४, २, १४, १६] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगदारं [४८३ आउअस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ ॥ १३ ॥ कुदो ? देव-मणुम्स-तिरिक्ख-णेरइयभवधारणसरूवाणं सत्तीणं चदुण्णमुवलंभादो । एसा वि परूवणा असुद्धदव्वट्ठियणयविसया। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिजमाणे आउअपयडी वि असंखेजलोगमेत्ता भवदि, कम्मोदयवियप्पाणमसंखेजलोगमेत्ताणमुवलंमादो। एत्थ वि गंथबहुत्तभएण अत्थावत्तीए तदवगमादो वा पञ्जवट्ठियणओ णावलंबिदो । एवडियाओ पयडीओ॥ १४ ॥ जेण आउअस्स चत्तारि चेव सहावा तेण चत्तारि चेव पयडीओ होति । णामस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ १५ ॥ सुगम। णामस्स कम्मस्स असंखेजलोगमेत्तपयडीओ ॥ १६ ॥ एत्थ किमट्ट पजबट्ठियणओ अवलंविदो ? आणुपुव्वीवियप्पपदुप्पायणटुं। तत्थ णिरयगइपाओग्गाणुपुविणामाए अंगुलस्स असंखेजदिमागमेत्तबाहल्ले तिरियपदरे सेडीए असंखेजभागमेत्तेहि ओगाहणावियप्पेहि गुणिदे जो रासी उप्पजदि तेत्तियमेत्तीओ सत्तीओ होति । तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुषिणामाए लोगे सेडीए असंखेजभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदे जा संखा उप्पजदि तत्तियमेत्ताओ सत्तीओ। मणुसगदि आयुकर्म की चार प्रकृतियाँ हैं ॥ १३ ॥ इसका कारण यह है कि देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक पर्यायको धारण कराने रूप शक्तियाँ चार पायी जाती हैं। यह प्ररूपणा भी अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयको विषय करनेवाली है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तो आयुकी प्रकृतियाँ भी असंख्यात लोक मात्र हैं, क्योंकि, कर्मके उदय रूप विकल्प असंख्यात लोक मात्र पाये जाते हैं। यहाँ भी ग्रन्थबहुत्वके भयसे अथवा अर्थापत्तिसे उनका परिज्ञान हो जानेके कारण पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन नहीं लिया गया है। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १४ ॥ चूँकि आयुके चार ही स्वभाव हैं अतएव उसकी चार ही प्रकृतियाँ होती हैं। नामकर्मको कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १५ ॥ यह सूत्र सुगम है। नामकर्मकी असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ हैं ॥ १६ ॥ शंका-यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन किसलिये लिया गया है ? समाधान-आनुपूर्वी के भेदोंको बतलानेके लिये यहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है। उनमेंसे अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र बाहल्यरूप तिर्यनतरको श्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाभेदोंसे गुणित करनेपर जो राशि उत्पन्न होती है उतनी मात्र नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी शक्तियाँ होती हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाभेदोंसे लोकको गुणित करनेपर जो संख्या उत्पन्न होती है उतनी मात्र तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नाभकर्मकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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