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________________ . २७२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, ३०४ केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेडिमचदुसमयपाओग्गहाणकालमेत्तो । एवं अभवसिद्धियपाओग्गे । एवं फोसणपरूवणा समत्ता । अधवा, उक्करसज्भवसाणट्ठाणे ति मणिदे विसमयपाओग्गाणं चरिमं घेप्पदि । (जहण्णज्झवसाणट्ठाणे ति भणिदे चदुसमयपाओग्गाणं जहण्णं घेप्पदि त्ति के वि आइरिया भणंति । तण्ण घडदे, उक्कस्ससंकिलेसम्मि णिवदणवारेहिंतो उक्कस्सविसोहीए पदण. वाराणमसंखेज्जगुणत्तविरोहादो। कंदयस्स फोसणकालो तत्तियो चेवे ति वुत्ते उवरि चदुसमयपाओग्गट्ठाणाणं चरिमाणकालो गहिदो त्ति भणंति । एदं पि ण घडदे, एक्कस्स ट्ठाणस्स कंदयत्तविरोहादो उक्कस्सविसोहीए परिणमणवारेहिंतो मज्झिमसंकिलेसपरिणमणवाराणं समाणत्तविरोहादो। तम्हा विदियअप्पाबहुगपरूवणा एत्थ ण परूविदा।) अप्पबहुए ति उकस्सए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे जीवा थोवा॥३०४॥ . कुदो ? विसमयपाओग्गट्ठाणकालस्स थोवत्तुवलंभादो । जहण्णए अणुभागबंधज्झवसाणहाणे जीवा असंखेज्जगुणा॥३०५॥ कुदो णव्वदे ? पुव्विल्लकालादो एदस्स कालो असंखेज्जगुणो त्ति सुत्तवयणादो विशेष कितना है ? वह अधस्तन चार समय योग्य स्थानों सम्बन्धी कालके बराबर है। इस प्रकार अभवसिद्धिक योग्य स्थानमें प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार स्पर्शनप्ररूपणा समाप्त हुई। अथवा, उत्कृष्ट अध्यवसानस्थान ऐसा कहनेपर दो समय योग्य स्थानोंका अन्तिम स्थान ग्रहण किया जाता है । जघन्य अनुभागस्थान ऐसा कहनेपर चार समय योग्य स्थानोंका जघन्य स्थान ग्रहण किया जाता है; ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि, ऐसा होनेपर उत्कृष्ट संक्लेशमें पड़नेके वारोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट विशुद्धिमें पड़नेके वारों के असंख्यात गुणे होनेका विरोध होता है। ___काण्डकका स्पर्शनकाल उतना ही है, ऐसा कहनेपर ऊपर चार समय योग्य स्थानोंमें अन्तिम स्थानके कालको ग्रहण किया गया है। ऐसा वे कहते हैं। परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, एक स्थानके काण्डक होनेका विरोध है, तथा उत्कृष्ट विशुद्धिमें परिणत होनेके वारोंकी अपेक्षा मध्यम संक्लेशमें परिणत होनेके वाराकी समानताका विरोध है। इस कारण द्वितीय अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा यहाँ नहीं की गई है। अल्पबहुत्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसानमें जीव स्तोक हैं ॥३०४॥ कारण यह कि दो समय योग्य स्थानोंका काल स्तोक पाया जाता है। उनसे जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें जीव असंख्यातगुण हैं ॥ ३०५ ॥ शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-पूर्वके कालका अपेक्षा इसकी काल असंख्यातगुणा है, इस सूत्रवचनसे जाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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