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________________ ४, २, ७, ४७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ३५ भणिदं । तेण आउसस्स जहण्णाणुभागबंधादो णीचागोदस्स जहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो त्ति णव्वदे। तत्तो णीचागोदजहण्णाणुभागो अणंतगुणो, विट्ठाणसंतकम्मत्तादो। णामवेयणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥ ४६॥ ___सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तयम्मि हदसमुप्पत्तियकम्मम्मि परियत्तमाणमज्झिमपरिणामम्मि णामकम्माणुभागस्स जहण्णं जादं । एसो अणुभागो णीचागोदजहण्णाणुभागादो अणंतगुणो। कुदो ? जसकित्तियादीणं सुहपयडीणमणुभागस्स सव्वत्थ णीचागोदाणुभागादो' अणंतगुणस्स विसोहीए घादिदाभावादो। अइसंकिलेसं णेदण सुहपयडीणमणुभागेघादिदे वि ण लाभो अत्थि, संकिलेसेण अजसकित्तियादिअसुहपयडीणमणुभागस्स बुड्डिदंसणादो। परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेहि सुहासुहपयडीणमणुभागमहल्लवड्डि-हाणोणमणिमित्तेहि परिणदस्स तेण सामित्तं दिण्णं । तदो बहुबड्डि-हाणीणमभावादो णामवेयणाभावो अणंतगुणो त्ति सिद्धं । वेदणीयवेदणा भावदो जहणिया अणंतगुणा ॥४७॥ वेदणीयाणुभागो खवगसेडीए संखेजसहस्सअणुभागखंडयघादेहि घादं पत्तो त्ति गया है, अतः इससे जाना जाता है कि आयुके जघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा नीचगोत्रका जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे नीचगोत्रका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह द्विःस्थान सत्कर्मरूप है। उससे भावकी अपेक्षा नाम कर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ४६॥ हतसमुत्पत्तिकर्मा और परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे संयुक्त जो सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव है उसके नाम कर्मका अनुभाग जघन्य होता है। यह अनुभाग नीचगोत्रके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होता है, क्योंकि, सर्वत्र नीचगोत्रके अनुभागसे अनन्तगुणा जो यशःकीर्ति आदि शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग होता है उसका विशुद्धिके द्वारा घात नहीं होता। अति सक्लशको प्राप्त कराकर शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात करानेपर भी कोई लाभ नहीं है, क्योंकि, संक्लेशसे अयश कीर्ति आदि अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें वृद्धि देखी जाती है। इसीलिये जो परिवर्तमान मध्यम परिणाम शुभाशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी महान् वृद्धि व हानिमें निमित्त नहीं पड़ते उनसे परिणत हुए.जीवको उसका स्वामी बतलाया है । अतएव बहुत वृद्धि व हानिका अभाव होनेसे नाम कर्मकी वेदना भावतः गोत्रकर्मकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती है, यह सिद्ध होता है। उससे भावकी अपेक्षा वेदनीय कर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है ॥ ४७ ॥ शंका-यतः वेदनीय कर्मका अनुभाग क्षपकश्रेणिमें संख्यात हजार अनुभागकाण्डकघातोंके १ अप्रतौ ‘णीचागोदाणुवलंभादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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