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________________ ४८८] छक्खंडागमे वेयणाखंडे [४, २, १४, २९. पबद्धट्ठदा, विदियसमए पबद्धो विदिया समयपबद्धट्टदा, तदियसमए पबद्धो तदिया समयपबद्धट्ठदा; एवं णेयव्वं जाव कम्मट्ठिदिचरिमसमओ त्ति । एत्थ एगसमयपबद्धट्ठदं ठविय तीसंसागरोवमकोडाकोडीहि गुणिदे असादावेदणीयस्स एवदियाओ कालणिबंधणपयडीओ होति । असादावेदणीयस्स सांतरबंधिस्स' समयपबद्धट्टदाए तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ गुणगारो ण होति, सादबंधणद्धाए असादस्स बंधाभावादो ? एत्थ परिहारो वुच्चदे। तं जहा-सगकम्मट्टिदिअभंतरे एदम्हि उद्देसे असादस्स बंधो पत्थि चेवे त्ति ण णियमो अस्थि, णाणाजीवे अस्सिदूण कम्म हिदीए सव्वसमएसु असादबंधुवलंभादो। एगजीवमस्सिदण कम्मट्टिदिअभंतरे असादस्स ण णिरंतरो बंधो लब्मदि त्ति भणिदे ण, तत्थ वि रेणापाकम्मट्टिदीयो अस्सिदृण णिरंतरबंधुवलंभादो। ण च एगजीवेण एत्थ अहियारो, कम्मट्टिदिमस्सिदूण समयपबद्धट्टदाए परूविदुमाढत्तादो । तम्हा असादवेदणीयस्स अद्धवबंधिस्स वि तीसंसागरोवमकोडाकोडीयो गुणगारो होंति त्ति सिद्धं। ___ असादवंधवोच्छिण्णकाले बद्धं सादमसादत्ताए संकंतं घेत्तण तीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता समयपबद्धट्ठदा त्ति किण्ण भण्णदे ? ण, सादसरूवेण बद्धाणं कम्मक्खंधाणं प्रबद्धार्थता है, द्वितीय समयमें बाँधा गया कर्मस्कन्ध द्वितीय समयप्रबद्धार्थता है, तृतीय समयमें बाँधा गया कर्मस्कन्ध तृतीय समयप्रबद्धार्थता है; इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । यहाँ एक समयप्रबद्धार्थताको स्थापितकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर इतनी मात्र आसाता वेदनीयकी कालनिबन्धन प्रकृतियाँ होती हैं। शंका-आसाता वेदनीय चुंकि सान्तरबन्धी प्रकृति है, अतएव उसकी समयप्रबद्धार्थताका गुणकार तीस कोडाकोड़ी सागरोपम नहीं हो सकता, क्योंकि, साता वेदनीयके बन्धकालमें असाता वेदनीयका बन्ध सम्भव नहीं है ? __समाधान–यहाँ इस शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-अपनी कर्मस्थितिके भीतर इस उद्देश्यमें असाता वेननीयका बन्ध है ही नहीं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, नाना जीवोंका आश्रय करके कर्मस्थितिके सब समयोंमें असाताका बन्ध पाया जाता है। शंका-एक जीवका आश्रय करके तो कर्मस्थितिके भीतर असाता वेदनीयका निरन्तर बन्ध नहीं पाया जाता है ? __समाधान-ऐसा कहनेपर उत्तर में कहते हैं कि 'नहीं'; क्योंकि, वहाँपर भी नाना कर्मस्थितियोंका आश्रय करके निरन्तर बन्ध पाया जाता है । और यहाँ एक जीवका अधिकार भी नहीं है, क्योंकि कर्मस्थितिका आश्रय करके समयप्रबद्धार्थताकी प्ररूपणा प्रारम्भ की गई है। इस कारण अध्रुवबन्धी असाता वेदनीयका गुणकार तीस कोड़ाकोड़ी सामरोपम है, यह सिद्ध है। शंका-असाता वेदनीयके बन्धव्युच्छित्तिकालमें बांधे गये व असाता वेदनीय स्वरूपसे परिणत हुए साता वेदनीयको ग्रहणकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थता क्यों नहीं कहते ? १ प्रतिषु 'सांतरबंधिसमय' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु ण ण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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