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________________ ४, २, ७, २६४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२१७ वडि-संखेज्जभागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डि-अणंतभागवड्डिट्ठाणाणि होति । जहा एगछहाणस्स अप्पाबहुगं भणिदं तहा णाणाछट्ठाणाणं पि वत्तव्वं, गुणगारं पडि भेदाभावादो । एवमणंतरोवणिधाअप्पाबहुगं समत्तं । परंपरोवणिधाए सव्वत्थोवाणि अणंतभागब्भहियाणि हाणाणि ॥२६२॥ कुदो ? एगकंदयपमाणत्तादो। असंखेजभागभहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २६३॥ । एत्थ गुणगारो रूवाहियकंदयं । तं जहा–एगउव्वंककंदयादो उवरि जदि रूवाहियकंदयमेत्ताओ असंखेज्जभागवड्डीयो लब्भंति तो कंदयमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि आगच्छति । पुणो हेहिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय गुणगारो साहेयव्वो। संखेजभागभहियट्ठाणाणि संखेजगुणाणि ॥ २६४ ॥ कुदो ? पढमपंचकस्स हेहिमसव्वद्धाणमेगं कादृण तस्सरिसेसु उकस्सं संखेज्ज छप्पण्णखंडाणि कादण तत्थ इगिदालखंडमेत्तसंखेज्जभागवड्डिअद्धाणेसु गदेसु जेण दुगुणवड्डी उप्पज्जदि तेण दुगुणवड्डीदो हेहिमअणंतभाग-असंखेज्जभागवड्डिअद्धाणादो उवरिमसव्वद्धाणं संखेज्जभागवड्डीए विसो होदि । तेणेगमद्धाणं ठविय इगिदालखंडेसु असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिके स्थान होते हैं। जिस प्रकार एक षट्स्थानके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है उसी प्रकारसे नाना षट्स्थानोंके भी अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये, क्योंकि, गुणकारके प्रति कोई भेद नहीं है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। परम्परोपनिधामें अनन्तभागवृद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ २६२ ॥ कारण कि वे एक काण्डकके बराबर हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६३ ॥ यहाँ गुणकार एक अंकसे अधिक काण्डक है। वह इस प्रकारसे-एक ऊर्वक काण्डकसे आगे यदि एक अंकसे अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो काण्डक प्रमाण उनके कितनी असंख्यात भागवृद्धियाँ पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान आते हैं। पश्चात् अधस्तन राशिसे उपरिमराशिको अपवर्तित करके गुणकारको सिद्ध करना चाहिये। उनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान संख्यातगुण हैं ॥ २६४॥ कारण यह कि प्रथम पंचांकके नीचेके सब अध्वानको एक करके उत्कृष्ट संख्यातके छप्पन खण्ड करके उनमेंसे उसके सहस इकतालीस खण्ड प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके बीतनेपर चूंकि दुगुणवृद्धि उत्पन्न होती है अतएव दुगुणवृद्धिसे नीचेका तथा अधस्तन अनन्तभागवृद्धि व असंख्यातभागवृद्धिके अध्वानसे ऊपरका सब अध्वान संख्यातभागवृद्धिका विषय होता है। इसलिये छ. १२-२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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