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________________ [२१ ४, २, ७, २०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं आउवबंधे संजदासंजदादिहेहिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो। उक्कस्साणुभागं बंधिय ओवट्टणाघादेण धादिय पुणो हेट्ठिमगुणट्ठाणाणि पडिवएणे संते उकस्साणुभागे सामित्तं किण्ण होदि ति वुत्ते ण, धादिदस्स अणुभागउ कस्सत्तविरोहादो। उकस्साणुभागे बंधे ओवट्टणाघादो णत्थि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, उकस्साउअंबंधिय पुणो तं धादिय मिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबंधे आउअउक्कस्साणुभागंतरस्स उवड्डपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो वा। अणुद्दिसादिहेट्ठिमदेवेसु पडिबद्धाउए बज्झमाणे उक्कस्साणुभागबंधो ण होदि त्ति जाणावणटुं'अणुत्तरविमाणवासियदेवस्स' इत्ति भणिदं । उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउअं वंधिय अणुभागं मोत्तण हिदीए चेव ओवट्टणाघादं कादण सोधम्मादिसु उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे ? ण, विणा आउअस्स उक्कस्सट्टिदिघादाभावादो । तव्वदिरित्तमणुकस्सा ॥ २० ॥ सुगममेदं । समाधान-नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुभागके साथ आयुको बांधनेपर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं होता। शंका--उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर उसे अपवर्तनाघातके द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी क्यों नहीं होता ? समाधान--नहीं, क्योंकि घातित अनुभागके उत्कृप्ट होनेका विरोध है। उस्कृष्ट अनुभागको बांधनेपर उसका अपवर्तनाघात नहीं होता, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर एक तो उत्कृष्ट आयुको बांधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो अग्निकुमार देवोंमें उत्पन्न हुए द्वीपायन मुनिके साथ व्यभिचार आता है, दूसरे इसका घात माने विना महाबन्धमें प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभागका दल प्रमाण अन्तर भी नहीं बन सकता। अनुदिश आदि नीचेके देवों से सम्बन्ध रखनेवालो आयुको बांधते हुए उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, यह बतलानेके लिये 'अनुत्तरविमानवासी देवके' यह कहा गया है। शंका--उत्कृष्ट अनुभागके साथ तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बांधकर अनुभागको छोड़ केवल स्थितिके अपवर्तनाघातको करके सौधर्मादि देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व क्यों नहीं पाया जाता है? समाधान--नहीं, क्योंकि, [अनुभागघातके ] विना आयुकी उत्कृष्ट स्थितिका घात सम्भव नहीं है। उससे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना है ॥ २० ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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