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________________ २० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, १६. सो को | अविसोहीए अइसंकिलेसेण च आउअस्स बंधो' णत्थि त्ति जाणावण 'तप्पा ओग्गविसुद्वेण' इत्ति भणिदं । जेण बद्धो' आउअस्स उक्कस्साणुभागो सो उक्कस्साभागस्स सामी होदित्ति जाणावणङ्कं 'बद्धल्लयं' इदि भणिदं । विदियादिसमएस बंधविरहिदे उकसाभागो किं होदि ण होदि चि पुच्छिदे जस्स तं संतकम्ममत्थि सोब उकस्साणुभाग सामी होदि त्ति भणिदं । तं संतकम्मं कस्स अस्थि ति पुच्छिदे इमस्सत्थि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुतं भणदि तं संजदस्स वा अणुत्तरविमाणवासियदेवस्स वा । तस्स आउववेणा भावदो उक्कस्सा ॥ १६ ॥ 'तं संजदस्सवा' इदि वृत्ते अपुव्व-अणियट्टि सुहुमउवसामगाणं उवसंत्तकसायाणं पमत्त संजदाणं च गहणं । कथं पमत्तसंजदेसु उक्कस्सारणुभागसत्तुवलद्धी ? ण एस दोसो, आउअस्स उकस्साणुभागं बंधिण पमत्तगुणं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो । संजदासंजदादिट्ठमगुणट्ठाणजीवा उकस्साणुभागसामिणो किण्ण होंति ? ण, उक्कस्सा भागेण सह जागृत' ऐसा निर्देश किया है । अत्यन्त विशुद्धि एवं अत्यन्त संक्लेशसे आयुका बन्ध नहीं होता, यह जतलाने के लिये 'उसके योग्य विशुद्धिसे संयुक्त' यह कहा है। जिसने आयुके उत्कृष्ट अनुभागको बांधा है वह उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है, यह बतलाने के लिये 'बद्धल्लयं' ऐसा सूत्रमें निर्देश किया है । बन्धसे रहित द्वितीयादिक समयोंमें क्या उत्कृष्ट अनुभाग होता है या नहीं होता ऐसा पूछने पर जिसके उसका सत्त्व है वह भी उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है यह कहा है । उसका सत्त्व किसके होता है, ऐसा पूछनेपर अमुक जीवके उसका सत्त्व होता है, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- उसका सच संयतके होता है अनुत्तरविमानवासी देवके होता है अतएव उसके आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १९ ॥ 'वह संयतके होता है' ऐसा कहनेपर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्यरायिक उपशामकोंका तथा उपसान्तकषाय व प्रमत्तसंयतोंका ग्रहण किया गया है । शंका - प्रमत्तसंयतों में उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व कैसे पाया जाता है ? सामाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आयुके उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके उसका सत्त्व पाया जाता है । शंका -- संयतासंयतादिक नीचेके गुणस्थानों में स्थित जीव उत्कृष्ट अनुभागके स्वामी क्यों नहीं होते ? १ प्रतौ 'बंधो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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