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________________ ४, २, ७, १८.] वे यणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं [१९ __ जसकित्ति-उच्चागोदाणं सुहुमसांपराइयखवगचरिमसमए उक्कस्सबंधुवलंभादो । जहा घादिकम्माणं मिच्छाइट्टिम्हि उक्कट्ठसंकिलिट्ठम्मि उक्कस्साणुभागसामित्तं दिण्णं तहा एदासिं किण्ण दिञ्जदे ? ण, तत्थतण उकस्मसंकिलेसेण सुहपयडीणं बंधाभावादो तत्थतणअसुहपयडिअणुभागसंतकम्मादो वि चरिमसमयसुहुमसांपराइयेण बद्धसुहपयडीणमुक्कस्साणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। सामित्तेण उकस्सपदे आउववेयणा भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥१७॥ सुगमं । अण्णदरेण अप्पमत्तसंजदेण सागारजागारतप्पाओग्गविसुद्धण बद्धल्लयं जस्स तं संतकम्ममत्थि ॥ १८ ॥ _ओगाहणादीहि भेदाभावपदुप्पायणटुं'अण्णदरेण'इत्ति भणिदं । अप्पमत्तम्मि चेव उकस्साणुभागबंधो पमत्तम्मि ण होदि त्ति जाणावण8 'अप्पमत्तसंजदेण'इत्ति भणिदं । दसणोवजोगसुत्तावत्थासु उक्कस्साणुभागबंधो णस्थि त्ति जाणावणहूँ 'सागार-जागार'णि कारण कि यश कीर्ति और उच्चगोत्रका सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट बन्ध उपलब्ध होता है। शङ्का-जिस प्रकार उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त मिथ्यादृष्टि जीवके घातिया कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व दिया गया है उसी प्रकार इनका क्यों नहीं दिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि एक तो मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा शुभ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। दूसरे वहाँ के अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागसत्त्वको अपेक्षा भी अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्यरायिकके द्वारा बांधा गया शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है, इसलिए उन उत्कृष्ट अनुभागकास्वामित्व मिथ्यात्व गुणस्थानमें नहीं दिया गया है। स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ १७॥ यह सूत्र सुगम है। साकार उपयोग युक्त, जागृत और उसके योग्य विशुद्धियुक्त अन्यतर जिस अप्रमत्तसंयतके द्वारा आयुकर्मका बन्ध होता है और जिसके इसका सत्त्व होता है ॥१८॥ __ अवगाहना आदिसे होनेवाली विशेषताका अभाव बतलानेके लिये सत्रमें 'अन्यतर' पद कहा है। अप्रमत्त गुणस्थानमें ही उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, प्रमत्त गुणस्थानमें वह नहीं होता; यह जतलानेके लिये 'अप्रमत्त संयतके द्वारा ऐसा कहा है। दर्शनोपयोग व सुप्त अवस्थाओंमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता, यह बतलानेके लिये 'साकार उपयोग सहित व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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