SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७, १५ गहणं सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्धादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागधादो णत्थि त्ति जाणावेदि । खीणकसाय-सजोगीसु हिदि-अणुभागघादेसु संतेसु' वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्ध अजोगिम्हि द्विदि-अणुभागवजिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं । सुहुमखवगउक्कस्साणु भाग-द्विदिबंधो पारसमुहुत्तमेत्तो, सो कधं सजोगि-अजोगीसु लब्भदे ? ण च बारसमुहुत्तमंतरे तदुभयगुणट्ठाणमुवगदाणमुवलब्भदे परदो जोवलब्मदि त्ति वोत्तु जुत्तं, वेयणीयखेत्तवेयणाए उक्कस्सियाए संतीए तस्सेव भावो णियमेण उक्कस्सो त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहादो ? ण, पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तहिदीसु द्विदपदेसाणं बंधाणुभागसरूवेण परिणदाणं थोवाणमुवलंभादो । कुदो गव्वदे ? 'बंधे उक्कड्डदि' त्ति वयणादो। तव्वदिरित्तमणुकस्सा ॥ १५ ॥ सुमगं । एवं णामा-गोदाणं ॥ १६ ॥ यथा-सूत्रमें क्षीणकषाय और सयोगिकेवलीका ग्रहण यह प्रकट करता है कि शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोधसे नहीं होता। क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानोंमें स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतयोंके अनुभागका घात वहा नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर स्थिति व अनुभागसे रहित अयागी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है। शङ्का-सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके उत्कृष्ट अनुभाग व स्थितिका बन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है, वह सयोगी और अयोगीके भला कैसे पाया जा सकता है। यदि कहा मुहूर्तों के भीतर ही उन दोनों गुणस्थानोंको प्राप्त हुए जीवोंके वह पाया जाता है, आगे नहीं पाया जाता; सो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, “वेदनीयक्षेत्रवेदनाके उत्कृष्ट होनेपर उसीके उसका भाव भी नियमसे उत्कृष्ट होता है" इस सूत्रके साथ विरोध हागा ? समाधान नहीं, क्योंकि बांधे गये अनुभाग स्वरूपसे परिणत पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितियों में स्थित प्रदेश थोड़े पाये जाते हैं। शङ्का-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह 'बंधे उक्कडुदि' इस वचनसे जाना जाता है। उससे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना है ॥ १५ ॥ यह सूत्र सुगम है। इसी प्रकार नाम व गोत्र कर्मके विषयमें भी कहना चाहिये ॥ १६ ॥ १. प्रतिषु 'संतेसु विहाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy