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________________ ४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, ४. अहियाराभायादो। एदं विदियमणियोगद्दारं । अप्पाबहुगं पि जदि वि दव्वादिमेदेण अणयविहं तो वि एत्थ कम्मभावअप्पाबहुगस्सेव गहणं कायव्वं, अण्णेहि एत्थ पओजणाभावादो । एदं तदियमणियोगद्दारं । एवमेदेहि तीहि अणियोगद्दारेहि भावपरूवणं कस्सामो। पदमीमांसाए णाणावरणीयवेयणा भावदो किमुक्कस्सा किमणकस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ॥३॥ एवं देसामासियसुतं, तेण अपणसिं णवण्णं पदाणं सूचयं होदि । तेण सव्वपदसमासो तेरस होदि । तं जहा–किमुक्कस्सा किमणुकस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा किमोजा किं जुम्मा किमोमा किं विसिट्ठा किं णोमणो विसिट्ठा णाणावरणीयवेयणा त्ति । पुणो एत्थ एक्केक्कं पदमस्सिदूण बारहभंगप्पयाणि अण्णाणि तेरस पुच्छासुत्ताणि णिलीणाणि । ताणि वि एदेणेव सुत्तण सूचिदाणि होति । तदो चोदसण्णं पुच्छासुत्ताणं सव्वभंगसमासो एगूणसत्तरिसदमेत्तो त्ति बोद्धव्वो १६६ । एत्थ पढमसुत्तस्स अट्ठपरूवणटुं देसामासियभावेण उत्तरसुत्तं भणदि उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा ॥४॥ बहुत्व भी यद्यपि द्रव्यादिके भेदसे अनेक प्रकारका है तो भी यहाँ कर्मभावके अल्पबहुत्वका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, दूसरे अल्पबहुत्वोंका यहाँ प्रयोजन नहीं है। यह तृतीय अनुयोगद्वार है । इस प्रकार इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा भावप्ररूपणा करते हैं। पदमीमांसामें ज्ञानावरणीयवेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है ॥ ३ ॥ यह देशामर्शक सूत्र है, अतएव वह अन्य नौ पदोंका सूचक है । इसलिये सब पदोंका योग (४+६) तेरह होता है। वह इस प्रकार है-उक्त ज्ञानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है और क्या नोमनोविशिष्ट है । फिर इस सूत्रमें एक-एक पदका आश्रय करके बारह भङ्ग स्वरूप अन्य तेरह पृच्छासूत्र गर्भित हैं। वे भी इसी सूत्रसे सूचित हैं। इस कारण चौदह पृच्छासूत्रोंके सब भङ्गोंका जोड़ एक सौ उनहत्तर [ १३ + { १२४१३ ) = १६९] समझना चाहिये । यहाँ प्रथम सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करनेके लिये देशामर्शक रूपसे आगेका सूत्र कहते हैं उक्त ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट भी होती है, अनुत्कृष्ट भी होती है, जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है ॥ ४ ॥ १. प्रतिषु ‘एवं' इति पाठः । २. अप्रतौ 'अणेयविदं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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