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________________ ४, २, ७, २.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अणियोगद्दारणामणिदेसो तम्हि वेयणभावविहाणे इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । अट्ठ अणियोगद्दाराणि किण्ण परूविदाणि ? ण, सेसपंचण्णमणियोगद्दाराणमेत्थेव पवेसादो । __ संपहि वेयणभावविहाणं किमढमागयं ? वेयणदव्वविहाणे जहपणुकस्सादिभेदेण अवगददव्वपमाणाणं, खेत्तविहाणे वि जहण्णुक्कस्सादिभेदेण अबगदओगाहणपमाणाणं, कालविहाणे जहण्णुकस्सादिभेदेण अवगयकालपमाणाणमट्टण्णं कम्माणमण्णाणादिकज्जुप्पायणसत्तिवियप्पपदुप्पायणट्ठमागयं । तिण्णमणियोगद्दाराणं णामणिदेसद्वमुत्तरसुत्तं भणदि(पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुए त्ति ॥२॥ पदमिदि वुत्ते जहण्णुकस्सादिपदाणं गहणं । कुदो ? अण्णेहि एत्थ पओजणाभावादो। तेण अत्थ-ववत्थापदाणं गहणं ण होदि, भेदपदस्सेव गहणं कीरदे ( पदाणं मीमांसा परिक्खा गवेसणा पदमीमांसा । एसो पढमो अहियारो । हय-हत्थिसामित्तादिभेदेण जदि वि सामित्तं बहुप्पयारं तो वि एत्थ कम्मभावसामिचं चैव घेत्तव्वं, अण्णेहि है । उस वेदनाभावविधानमें ये तीन अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं। शङ्का-यहाँ आठ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, शेष पाँच अनुयोगद्वार इन्हींमें प्रविष्ट हैं । शङ्का-अभी वेदनाभावविधानका अवतार किसलिये हुआ है ? समाधान-वेदनाद्रव्यविधानमें जघन्य व उत्कृष्ट आदिके भेदसे जिन आठ कर्मोके द्रव्यप्रमाणको जान लिया है, क्षेत्रविधानमें भी जघन्य व उत्कृष्ट आदिके भेदोंसे जिनका अवगाहनाप्रमाण जाना जा चुका है, तथा कालविधानमें जिनका जघन्य व उत्कृष्ट आदिके भेदोंसे कालप्रमाण ज्ञात हो चुका है, उन आठ कर्मोंकी अज्ञानादि कार्योंकी उत्पादक शक्तिके विकल्पोंकी प्ररूपणा करनेके लिये वेदनाभावविधानका अवतार हुआ है। अब उक्त तीन अनुयोगद्वारोंका नाम निर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहा जाता हैपदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।। २ ॥ सूत्रमें निर्दिष्ट पदसे जघन्य व उत्कृष्ट आदि पदोंका ग्रहण किया गया है, क्योंकि, अन्य पदोंका यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिये यहाँ अर्थपद व व्यवस्थापद आदिक पदोंका में नहीं होता है, किन्तु भेदपदका ही ग्रहण किया जाता है। पदोंकी मीमांसा अर्थात परीक्षा या गवेषणाका नाम पदमीमांसा है। यह प्रथम अधिकार है। घोड़ा व हाथी आदि सम्बन्धी स्वामिस्वके भेदसे यद्यपि स्वामित्व बहुत प्रकारका है, तो भी यहाँ कर्मभावके स्वामित्वका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि और दूसरोंका यहाँ अधिकार नहीं है। यह दूसरा अनुयोगद्वार है । अल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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