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________________ ४५४] B खंडागमे वेयणाखंड [ २, ४, १३, २४४. उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा उक्कस्सादो अणुक्कस्सा तिट्ठाण - पदिदा ॥ २४४ ॥ पुव्वकोडितिभागे उकस्साउट्ठिदिं बंधमाणेण जदि णाणावरणीयादिसत्तण्णं कम्मामुकसहिदी पद्धातो आउएण सह सेससत्तणं कम्माणं पि उक्कस्सट्ठिदी होदि । अण्णा अणुस्सा होण तिट्ठाणपदिदा होदि । पज्जवणयाणुग्गहट्ठमुत्तरमुत्तं भणदिअसंखेज्जभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा ॥ २४५ ॥ तं जहा - पुत्रको डितिभागम्मि उकस्साउअडिदिं बंधमाणेण सत्तण्णं कम्माणं समऊणुकसहिदीए बद्धाए असंखेज्जभागहाणी होदि । दुसमऊणाए पबद्धाए वि असंखेजभागहाणी व होदि । एवमसंखेज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव सत्तण्णं कम्माणं सग-सगुक सद्विदीओ उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदृण तत्थ एंगखंडेण' परिहाइदूण [बंधदि । ] दो पहुs मिट्ठदीसु आउअस्स उकस्सट्ठिदीए सह बंधमाणासु संखेज्जभागहाणी होदि जाव उक्कसहिदीए अद्धमेत्तं बद्धं ति । तदो पहुडि हेट्ठिमट्ठिदीओ आउअस्स उक्कसहिदी सह बंधमाणस्स संखेज्जगुणहाणी होदि जाव तप्पाओग्गअंतोकोडा कोडिद्विदिति । वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट तीन स्थानों में पतित है ॥ २४४ ॥ पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके द्वारा यदि ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधी गई तो आयु के साथ शेष सात कर्मोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसके विपरीत वह अनुत्कृष्ट होकर तीन स्थानोंमें पतित होती है । अब पर्यापार्थिक नयके अनुग्रहार्थ गेका सूत्र कहते हैं उक्त वेदना असंख्य । तभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन होती है ।। २४५ ।। वह इस प्रकार से – पूर्वको टिके त्रिभागमें आयु की उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके द्वारा सात कर्मोकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बाँधे जानेपर असंख्यात भागहानि होती है । दो समय कम उत्कृष्ट स्थिति के बाँधे जानेपर भी असंख्यात भागहानि ही होती है । इस प्रकार असंख्यात भागहानि होकर तब तक जाती है जब तक सात कर्मों की अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितियोंको उत्कृष्ट संख्या तसे 'खण्डित कर उनमें एक खण्डसे हीन होकर बाँधी जाती हैं । यहाँ से लेकर आयुकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ अधस्तन स्थितियोंको बाँधनेपर उत्कृष्ट स्थितिके अर्ध भागको बाँधने तक संख्यातभागहानि होती है । यहाँ से लेकर अधस्तन स्थितियोंको आयुकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ बाँधनेवाले जीवके तत्प्रायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति तक संख्यातगुणहानि होती है । १ प्रतिषु 'एगखंडे' इति पाठः । २ प्रतिषु 'बद्धमाणासु' इति पाठ: । ३ प्रतिषु 'ब्रद्धमाणस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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