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________________ ४६६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २८२. सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणन्भहिया ॥२८२ ॥ एवं पि सुगम, बहुसो अवगमिदत्थत्तादो। जस्स आउअवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा दव्वदो किं जहएणा अजहण्णा ॥ २८३ ॥ सुगमं। णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा ॥ २८४ ॥ रहयो जेण पंचिंदियो सण्णिपज्जत्तो तेण एइंदियजोगादो एदस्स जोगो असंखेज्जगुणो। तेणेव कारणेण एइंदियएगसमयपबद्धदव्वादो एदस्स' एगसमयपबद्धदव्यमसंखेज्जगुणं । तेण दीवसिहापढमसमयदव्वेण सत्तण्णं पि कम्माणं दिवड्डगुणहाणिपमाण'पंचिंदियसमयपवद्धमेत्तेण होदव्वं । तदो सग-सगजहण्णदव्वं पेक्खिदूण एत्थतणदग्वेण असंखेज्जगणेणेव होदव्वं । तेण चउट्ठाणपदिदा ति ण घडदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण विवरीदं गंतूण' जहण्णजोगेण जहण्ण बंधगद्धाए च णिरयाउअंबंधिय सत्तमपुढविणेरइएसु उववज्जिय छहि पज्जत्तीहि पज्ज यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ २८२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, इसके अर्थका परिज्ञान बहुत बार कराया जा चुका है। जिस जीवके आयुकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षो जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२८३॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य चार स्थानों में पतित होती है ॥२८४॥ शङ्का-चूँ कि नारक जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी व पर्याप्त है, अतएव एकेन्द्रिय जीवके योगकी अपेक्षा इसका योग असंख्यातगणाहै। और इसी कारणसे एकेन्द्रिय जीवके एक समय अपेक्षा इसके एक समयप्रबद्धका द्रव्य असंख्यातगुणा है । इसलिये दीपशिखाके प्रथम समयके द्रव्यसे सातों ही कर्मोंका द्रव्य डेढ़ गुणहानिमात्र पंचेन्द्रियके समयप्रबद्ध प्रमाण होना चाहिये। अतएव अपने अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा यहाँका द्रव्य असंख्यातगुणा ही होगा। ऐसी अवस्थामें सूत्रमें 'चतुःस्थान पतित बतलाना घटित नहीं होता ? ___ समाधान-यहाँ इस शङ्काका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर विपरीत स्वरूपको प्राप्त हो जघन्य योगसे और जघन्य बन्धककालसे नारकायुको बाँधकर सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न हो छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको १ आप्रतौ 'एगसमयपबद्धत्तादो दव्वादो एगस्स' इति पाठः । २ ताप्रती 'पमाणं' इति पाठः । ३ तापतौ नोपलभ्यते पदमेतत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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