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________________ ४, २, १३, २८४.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं [४६७ त्तयदो होदूण अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तूण दिवड्डमेत्तएइंदियसमयपबद्धे' ओकड्डुक्कड्डणभागहारेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तदव्वमोकड्ड दि । एवमोकड्डिदूण उदयावलियबाहिरद्विदीए वट्टमाणकाले बज्झमाणएगसमयपबद्धस्स पढमणिसेगादो असंखेज्जगुणं णिसिंचदि । तत्तो प्पहुडि उवरि विसेसहीणं णिसिंचदि जाव ओकड्डिदसमयपत्रद्धा णिविदा ति । एवं समयं पडि ओकड्डिदूण णिसेगरचणाए कीरमाणाए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तण कालेण उदयगदगोवुच्छा असंखेज्जभागहीणएगपंचिंदियसमयपवद्धमत्ता होदि, सव्वत्थ भुजगारकालपमाणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो । तेण समयं पडि वयादो आयो' असंखेज्जभागब्भहियो। एदेण कमेण तेत्तीससागरोवमेसु संचयं करिय दीवसिहापढमसमए हिदस्स सत्तकम्मदव्वं सगजहण्णदव्वादो असंखेज्जभागम्भहियं होदि । ण च ओकड्डिददव्वस्स पढमणिसेयो बज्झमाणसमयपबद्धस्स पढमणिसेगेण सरिसो, तत्तो असंखेज्जगुणस्सेव संभवुवलंभादो । तं जहा-ओकड्डणाए णिसिंचमाणदव्वस्स पढमणिसेगो एगमेइंदियसमयपबद्धमोकड्डुक्कड्डणभागहारेण खंडिदमेत्तो होदि । एसो वि बद्धपढमणिसेगादो असंखेज्जगुणो ति। तेण एगगुणहाणीए असंखज्जदिभागे चेव अदिक्कते उदयगदगोपुच्छा एगपंचिंदियसमयपबद्धमत्ता होदि । जदि एगपंचिंदियसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागेण उदयगदगोवुच्छा ओकड्डुक्कड्डणवसेण ऊणा ग्रहण करके डेढ़ गुणहानि प्रमाण एकेन्द्रियके समयप्रबद्धोंको अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड मात्र द्रव्यका अपकर्षण करता है। इस प्रकार अपकर्षित करके उदयावलिके बाहिर स्थितिमें वर्तमानकालमें बाँधे जानेवाले एक समयप्रबद्धके प्रथम निषेकसे असंख्यातगुणा देता है। उससे लेकर आगे अपकर्षित समयप्रबद्धोंके समाप्त होने तक विशेषहीन देता है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें अपकर्षित कर निषेकरचना करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें कालमें उदयप्राप्त गोपुच्छ असंख्यातवें भागसे हीन एक पचेन्द्रियके समयप्रबद्धके बराबर होती है, क्योंकि, सर्वत्र भुजाकारबन्धके कालका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवेंभाग पाया जाता है । इसलिये प्रत्येक समयमें व्ययकी अपेक्षा आय असंख्यातवें भागसे अधिक है । इस क्रमसे तेतीस सागरोपमोंमें संचय करके दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित जीवके सात कर्मोंका द्रव्य अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। अपकर्षित द्रव्यका प्रथम निषेक बाँधे जानेवाले समयप्रबद्धके प्रथम निषेकके सहश भी नहीं होता, क्योंकि, उसके उससे असंख्यातगुणे होनेकी ही सम्भावना पायी जाती है । वह इस प्रकारसेअपकर्षण द्वारा दिये जानेवाले द्रव्यका प्रथम निषेक एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको अपकर्षणउत्कर्षण भागहारसे खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उतना होता है। यह भी बाँधे गये प्रथम निषेकसे असंख्यातगुणा है। इस कारण एक गुणहानिके असंख्यातवें भागके ही बीतनेपर उदयगत गोपुच्छा पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धके बराबर होती है। यदि उदयगत गोपुच्छा अपकर्षण-उत्कर्षण द्वारा पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धके संख्यातवें भागसे हीन होकर सर्वत्र नष्ट होती है तो दीपशिखा १ ताप्रतौ 'उकड्डुक्कडुण' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'श्रादि', ताप्रती 'आदी' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'बंधः इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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