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________________ ४, २, १३, २८१. ] वेयणसणियासविहाणाणियोगद्दारं [ ४६५ जहणदव्वस्सुवरि एग परमाणुम्मि वडिदे अनंतभागवड्डी होदि । एवं परमाणुत्तरादिकमेण ताव अनंतभागवड्डी गच्छदि जाव जहण्णदव्वमुकस्सअसंखेज्जेण खंडिदूण तत्थेगखंडमेत्तं वड्ढिदं ति । तदो पहुडि परमाणुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागबड्डी ताव गच्छदि जाव जहण्णदव्वं तप्याओग्गेण पलिदोत्रमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ एगखंडमेतं जहण्णदव्वस्सुवरि वडिदं ति । एवं णामा - गोदाणं ॥ २७८ ॥ जहा वेणीस सण्णियासो कओ तहा णामा - गोदाणं पि सण्णियासो कायव्वो, विसे साभावाद | जस्स मोहणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स छण्णं कम्माणमाउअवजाणं वेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २७६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज भागव्भहिया ॥ २८० ॥ कुदो ! उवरि विणासिज्जमाणदव्वेण अहियत्तादो । तस्स अहियदव्वस्स को डिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तस्स आउअवेणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २८२ ॥ जघन्य द्रव्यवेदनाके ऊपर एक परमाणुकी वृद्धि होनेपर अनन्तभागवृद्धि होती है । इस प्रकार एक एक परमाणु आदिके क्रमसे तब तक अनन्तभागवृद्धि जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट असंख्यातसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र वृद्धि होती है । तत्पश्चात् उससे लेकर एक एक परमाणु आदिके क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि तब तक जाती है जब तक जघन्य द्रव्यको तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र वृद्धि जघन्य द्रव्यके ऊपर होती है । इसी प्रकार नाम और गोत्रकी प्ररूपणा करनी चाहिये ||२७८ ॥ जिस प्रकार वेदनीयका सन्निकर्ष किया गया है उसी प्रकार नाम और गोत्रके सन्निकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । जिसके मोहनी की वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके आयुको छोड़कर छह कर्मोंकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२७६॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातवें भाग अधिक होती है || २८० ॥ कारण कि वह आगे नष्ट किये जानेवाले द्रव्यसे अधिक है । उस अधिक द्रव्यका प्रतिभाग क्या है ? उसका प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । उसके आयुकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २८१ ॥ छ. १२-५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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