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________________ ४५६] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [२, ४, १३, २५० तं जहा-सण्णिपंचिंदियपज्जत्तसव्यसंकिलिट्टमिच्छाइट्ठीसुणाणावरणीयभावो उक्कस्सो होदि । आउअभावो पुण पमत्तापमत्तसंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसाओ ति ताव उक्कस्सो होदि वेमाणियदेवेसु च । सेसअघादिकम्माणं सुहमसांपराइयसुद्धि संजदप्पहुडि उवरि उकस्समावो होदि । ण च मिच्छाइट्ठीसु अघादिकम्माणमुक्कस्सभावो अस्थि, सम्मोइट्ठीसु णिय मिदउक्कस्साणुभागस्स मिच्छाइट्ठीसु संभवविरोहादो । तेण अघादिकम्माणमणुभागो अणंतगुणहीणो। एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ २५० ॥ जहा णाणावरणीयस्स सण्णियासो कदो तहा सेसतिण्णं घादिकम्माणं काययो, अविसेसादो। जस्स वेयणीयवेयणा भावदो उकस्सा तस्स णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयवेयणा भावदो सिया अस्थि सिया णस्थि ॥२५१ ॥ सुहुमसांपराइय-खीणकसाएसु अत्थि, तत्थ तदाधारपोग्गलुवलंभादो। उवरि णस्थि, तेसु संतेसु केवलितविरोहादो। जदि अत्थि भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २५२॥ वह इस प्रकारसे—संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त व सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ज्ञानावरणीयका भाव उत्कृष्ट होता है। परन्तु आयु कर्मका भाव प्रमत्त व अप्रमत्तसंयतसे लेकर उपशान्तकषाय तक उत्कृष्ट होता है, तथा वैमानिक देवोंमें भी वह उत्कृष्ट होता है। शेष तीन अघाति कर्मोका उत्कृष्ट भाव सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतसे लेकर आगे होता है। मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अघाति कर्मोंका उत्कृष्ट भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवोंमें नियमसे पाये जानेवाले अघाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके मिथ्यादृष्टि जीवोंमें होनेका विरोध है । इस कारण अघाति कर्मोका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायके संनिकर्षकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २५० ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकार शेष तीन घाति कर्मोंका संनिकर्ष करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। जिस जीवके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदना भावकी अपेक्षा कथञ्चित् होती है व कथंचित् नहीं होती है ॥ २५१ ॥ उक्त तीन घाति कर्मोंकी वेदना सूक्ष्मसाम्परायिक और क्षीणकषाय गुणस्थानोंमें है, क्योंकि, वहाँ उनके आधारभूत पुद्गल पाये जाते हैं। आगे उनकी वेदना नहीं है, क्योंकि, उक्त तीन कर्मों के होनेपर केवली होनेका विरोध है। यदि है तो वह भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है या अनुत्कृष्ट ॥२५२॥ १ ताप्रतौ होदि । वेमाणियदेवेसु च सेस-' इति पाठः । ताप्रतौ ‘सापराइद्धि-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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