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________________ ४, २, ७, ७–८ गा० ] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं [ ७६ परूवेंति । भावविहाणे परूविज्जमाणे एकारसगुणसे डिपदेस णिज्जरपरूवणा तकालपरूवणा च किम करदे ? विसोहीहि अणुभागक्खएण पदेसणिज्जराजाणावणदुवारेण जीवकम्माणं संबंधस्स अणुभागो चेत्र कारणमिदि जाणावणङ्कं वुच्चदे | अहवा, दव्यविहाणे जहण्णसामित्ते भण्णमाणे गुणसेडिणिज्जरा सूचिदा । तिस्से गुणसेडिणिज्जराए भावो कारणमिदि भावविहाणे तव्त्रियप्पपरूवणङ्कं बुच्चदे | 'सम्मत्तप्पत्ति'त्ति भणिदे दंसणमोहउवसामणं कारण पढमसम्मत्तप्पाणं घेत्तव्यं । 'साव'ति मणिदे देसविरदीए गहणं । 'विरदे' त्ति भणिदे संजयस्स गहणं । 'अनंतक - *मंसे' त्ति वृत्ते अताणुबंधिविसंजोयणा घेत्तव्त्रा । 'दंसण मोहक्खवगे' त्ति वृत्ते दंसणमोहणीक्खवगो घेत्तव्वो । 'कसायउवसामगे' त्ति वृत्ते चरित्तमोहणीयउवसामगो धेत्तच्चो | 'उवसंते'त्ति वृत्ते उवसंतकसाओ घेतब्धो । 'खवगे' त्ति वृत्ते चरित्तमोहणीयखवगो घेत्तव्वो । 'खीणमोहे' त्ति भणिदे खीणकसायस्स गहणं । 'जिणे' त्ति भणिदे सत्थाणजिणाणं जोगणिरोहे वा वावदजिणाणं च गहणं । एदेण' गाहासुत्त कलावेण एकारस" पदेसगुण से डिणिजरा परूविदा | 'तव्विवरीदो शङ्का - भावविधानका कथन करते समय ग्यारह गुणश्रेणियों में होनेवाली प्रदेशनिर्जराका कथन और उसके कालका कथन किसलिये करते हैं ? समाधान-विशुद्धियोंके द्वारा अनुभागक्षय होता है और उससे प्रदेशनिर्जरा होती है इस बातका ज्ञान कराने से जीव और कर्मके सम्बन्धका कारण अनुभाग ही है, इस बात को बतलाने के लिये उक्त कथन किया जा रहा है । अथवा, द्रव्यविधानमें जघन्य स्वामित्व की प्ररूपणा करते हुए गुणश्रेणिनिर्जराकी सूचना की गई थी। उस गुणश्रेणिनिर्जराका कारण भाव है, अतएव यहाँ भावविधान में उसके विकल्पोंका कथन करनेके लिये यह कथन किया जा रहा है । पूर्वोक्त गाथा में 'सम्मत्तप्पत्ती' ऐसा कहने पर दर्शनमोहका उपशम करके प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका ग्रहण करना चाहिये । सावए' कहने से देशविरतिका ग्रहण किया गया है । 'विरदे' कहनेपर संयतका ग्रहण करना चाहिये । 'अांत कम्मंसे' ऐसा निर्देश करनेपर अनन्तानुबन्धी कषायकी विसंयोजनाका ग्रहण करना चाहिये । 'दंसणमोहक्खवगे' ऐसा कहने पर दर्शनमोहनीय के क्षपकका ग्रहण करना चाहिये । 'कसायउवसामगे' कहने पर चारित्रमोहनीयका उपशम करने - वाले जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'उवसंते' कहनेपर उपशान्तकषाय जीवका ग्रहण करना चाहिये | 'खवगे' कहने पर चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'खीणमोहे' ऐसा कहनेपर क्षीणकषाय जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'जिणे' कहनेपर स्वस्थान जिनोंका और योगनिरोध में प्रवर्तमान जिनोंका ग्रहण करना चाहिए । इस गाथा सूत्रकलापके द्वारा ग्यारह प्रदेशगुणश्रेणिनिर्जराओंकी प्ररूपणा की गई है । १ प्रतिषु एदेण सुत्त इति पाठः । Jain Education International २. प्रतिषु एक्कारसगाहापदेस -इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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