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________________ ३४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १०, ३०. ण चावरणिज्जस्स केवलणाणस्स भेदो अत्थि जेण पयडिमेदो होज्ज । तम्हा सिद्धमेयत्तं पयडीए । जीवस्स बहुत्तमत्थि । ण च जीवाहुत्तेण पयडिभेदो होज्ज, पयडीए एगसरूवत्तदसणादो। तम्हा' जीव-पयडि-समयाणमेयत्तं जीवबहुत्तं च बज्झमाणकम्मक्खंधस्स संभवदि त्ति सिद्धं । एत्थ अक्खपरावत्ते कदे बज्झमाणियाए वेयणाए जीव-पयडि-समयपत्थारो उप्पज्जदि । तस्ससंदिट्ठी एसा । एवं ठविय पुणो एदस्स पढमसुत्तस्स अत्थो बुञ्चदे । तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झमाणिया वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसमयपबद्धा सिया बज्झमाणिया वेयणा' । एवं बे भंगा [२] | जीवबहुत्तेण पयडिबहुत्तं पत्थि, किंतु कालबहुतेण चेव पयडिबहुत्तं होदि । तत्थ वि उवसंताए उदय-ओकड्डण-उक्कड्डण-परपयडिसंकमणादीहि पयडिभेदो णत्थि, किंतु बज्झमाणसमयबहुत्तेण चेव पयडिभेदो, तहा' लोए संववहारदसणादो । एवं बज्झमाणियाए वेयणाए चेव भंगा पढमसुत्तम्मि । होनेपर ही आवरण प्रकृतिका भेद होता है। परन्तु आवरण करनेके योग्य केवलज्ञानका कोई भेद है ही नहीं, जिससे कि प्रकृतिका भेद हो सके। इस कारण प्रकृतिका अभेद ( एकता) सिद्ध ही है। जीवोंका बहुत्व सम्भव है। यदि कहा जाय कि जीवोंके बहुत्वसे प्रकृतिका बहुत्व भी सम्भव है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्रकृतिमें एक स्वरूपता देखी जाती है। इस कारण बध्यमान कर्मस्कन्धके सम्बन्धमें जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन और जीवोंके बहुचनकी सम्भावना है, यह सिद्ध है। यहाँ अक्षपरावर्तन करनेपर बध्यमान वेदना सम्बन्धी जीव, प्रकृति व समयका प्रस्तार उत्पन्न | जीव | एक अनेक होता है। उसकी संदृष्टि यह है-प्रकृति एक | एक || इस प्रकार स्थापित करके इस प्रथम सूत्रका समय| एक एक अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् बध्यमान वेदना है । इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई कथंचित् बध्यमान वेदना है। इस प्रकार दो भंग हुए (२)। जीवोंके बहुत्वसे प्रकृतिका बहुत्व नहीं होता है, किन्तु कालके बहुत्वसे ही प्रकृतिका बहुत्व होता है । कालबहुत्वमें भी उपशान्तमें उदय, अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृति संक्रमण आदिके द्वारा प्रकृतिभेद नहीं होता; किन्तु बध्यमान समयोंके बहुत्वसे ही प्रकृतिभेद होता है, क्योंकि, लोकमें वैसा संव्यवहार देखा जाता है। इस प्रकार प्रथम सूत्र में बध्यमान वेदनाके ही भंग हैं। १ प्रतिषु 'तं जहा' इति पाठः। २ ताप्रती 'वेयणा [ए]' इति पाठः । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्रा-काप्रतिषु 'तदा', ताप्रतौ 'तदा (था)' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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