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________________ २३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ७,२६७. पुणो सो अत्थो आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहरभडारयं संपत्तो। पुणो तत्तो आइरियपरंपराए आगंतूण अञ्जमंखु-णागहत्थिभडारयाणं मूलं पत्तो । पुणो तेहि दोहि वि कमेण जदिवसहभडारयस्स वक्खाणिदो । तेण वि अणुभागसंकमे सिस्साणुग्गहटुं चुण्णिसुत्ते लिहिदो। तेण जाणिजदि जहा सव्वटुंकुव्यंकाणं विच्चालेसु घादट्टाणाणि णस्थि त्ति । एवं हदसमुप्पत्तियाणपरूषणा समत्ता ।) एत्तो उवरि 'हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-जहण्णविसो. हिट्ठाणप्पहुडि जाव उक्कस्सविसीहिट्ठाणे त्ति ताव एदाणि असंखेजलोगमेत्तविसोहिट्ठाणाणि धादिदसेसाणुभागघादकारणाणि एगसेडिसरूवेण रचेदूण पुणो एदेसि दक्षिणपासे सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णट्ठाणप्पहुडि असंखेज्जलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियट्ठाणाणि एगसेडिसरूवेण रचेदूण पुणो सुहुमणिगोदअपज्जत्तजहण्णट्ठाणस्सुवरि संखेजाणं छट्ठाणाणं अट्ठकुव्वंकट्ठाणाणि मोत्तण पुणो तदणंतरअप्पडिसिद्ध अटुंकप्पहुडि जाव चरिमअटुंके ति ताव एदेसिमसंखेजलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियअटुंकुव्वंकाणमंतरेसु पुत्वावरायामेण असंखेजलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि रचेदण पुणो तत्थ चरिमबंधसमुप्पत्तियअहंकुव्वंकाणं मज्झे असंखेजलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियहाणाणि होति । पुणो एदेसु हाणेसु असंखेजलोगमेत्तअट्ठकाणि रूवूणछट्ठाणं च अस्थि । करनेवाले वर्धमान भट्टारक द्वारा गौतम स्थविरके लिए की गई थी। पश्चात् वह अर्थ आचार्य परम्परासे आकर गुणधर भट्टारकको प्राप्त हुआ। फिर उनके पाससे वह आचार्य परम्परा द्वारा आकर आर्यमा और नागइस्ती भट्टारकके पास आया। पश्चात् उन दोनों ही द्वारा क्रमसे उसका व्याख्यान यतिवृषभ भट्टारकके लिये किया गया। उन्होंने भी उसे शिष्योंके अनुग्रहार्थ चूर्णिसूत्र में लिखा है । उससे जाना जाता है कि समस्त अष्टांकों और ऊर्वकके अन्तरालोंमें घातस्थान नहीं है । इस प्रकार हतसमुत्पत्तिकस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई। इसके आगे हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य विशुद्धिस्थानसे लेकर उत्कृष्ट विशुद्धस्थान तक घातनेसे शेष रहे अनुभागके घातने में इन असंख्यात लोकप्रमण विशुद्धिस्थानोंको एक पंक्तिके रूफ्से रचकर फिर इनके दक्षिण पाश्व भागमें सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यातलोक प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंको एक पंक्ति स्वरूपसे रचकर तत्पश्चात् सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य स्थानके आगे संख्यात षस्थानों सम्बन्धी अष्टांग व ऊर्वंक स्थानोंको छोड़कर फिर तदनन्तर अप्रतिषिद्ध अष्टांकसे लेकर अन्तिम अष्टांक तक इन असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पतिक अष्टांक और ऊवक स्थानोंके अन्तरालोंमें पूर्व-पश्चिम आयामसे असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थानोंको रचकर फिर वहाँ अन्तिम बन्धसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके मध्यमें असंख्यातलोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। इन स्थानों में असंख्यात लोक प्रमाण अष्टांक और एक अंकसे रहित एक पदस्थान भी है। १ अापतौ 'हदसमुप्पत्तिय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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