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________________ वेयणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं वेयणपरिमाणविहाणे त्ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं । किमट्टमेदं वुच्चदे ? ण, अण्णहा परवणाए णिप्फलत्तप्पसंगादो । ण ताव एदेण पयडिवेयणापरिमाणं वुचदे, णाणावरणादी अट्ट चेव पयडीयो होति ति पुव्वं परूविदत्तादो । ण हिदिवेयणाए पमाणपरूवणा एदेण कीरदे, कालविहाणे सप्पवंचेण परूविदह्रिदिपमाणतादो। ण भाववेयणाए पमाणपरूवणा एदेण कीरदे, मावविहाणे परूविदस्स परूवणाए फलाभावादो। ण पदेसपमाणपरूवणा एदेण कीरदे, अणुक्कस्सइव्वविहाणे परूविदस्स पुणो परूवणाए फलाभावादो। ण च खेत्तवेयणाए पमाणपरूवणा एदेण कीरदे, खेत्तविहाणे परूविदत्तादो। अणहिगयपमेयाहिगमो' एदम्हादो णत्थि त्ति णाढवेदव्यमेंदमणियोगद्दारं ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-पुव्वं दबहियगयमस्सिदण अट्ट चेव पयडीयो होति त्ति वुत्तं। तासिमट्ठण्णं चेव पयडीणं दव्व खेत्तकाल-भावपमाणादिपरूवणा च कदा। संपहि पन्जवट्टियणयमस्सिदूण पयडिपमाणपरूवण अब वेदनापरिमाण विधान अनुयोगद्वारका अधिकार है ॥१॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है। शंका-इसे किसलिये कहा जा रहा है ? समाधान नहीं, क्योंकि, इसके विना प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। शंका-यह अधिकार प्रकृतिवेदनाके प्रमाण को तो बतलाता नहीं है, क्योंकि, ज्ञानावरण आदि आठ ही प्रकृतियाँ हैं, यह पहिले ही प्ररूपणा की जा चुकी है। स्थितिवेदनाके प्रमाणकी प्ररूपणा भी नहीं करता है, क्योंकि, कालविधानमें विस्तारपूर्वक स्थितिका प्रमाण बतलाया जा चुका है। यह भाववेदनाके प्रमाणकी भी प्ररूपणा नहीं करता, क्योंकि, भावविधानमें प्ररूपित उसकी फिरसे प्ररूपणा करना निष्फल होगी। प्रदेशप्रमाणकी प्ररूपणा भी इसके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट द्रव्य विधानमें उसकी प्ररूपणा की जा चुकी है; अतएव उसकी यहाँ फिरसे प्ररूपणा करनेका कोई प्रयोजन नहीं है। क्षेत्रवेदनाके प्रमाणकी प्ररूपणा भी इसके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि, उसकी प्ररूपणा क्षेत्रविधानमें की जा चुकी है । इस प्रकार चूंकि प्रकृति अधिकारसे अनधिगत पदार्थका अधिगम होता नहीं है, अतएव इस अधिकारको प्रारम्भ नहीं करना चाहिये? समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं-पहले द्रव्यार्थिक नयका आश्रय करके आठ ही प्रकतियाँ होती हैं. ऐसा कहा गया है। तथा उन आठों प्रकृतियोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिके प्रमाणकी भी प्ररूपणा की गई है। अब यहाँ पर्यायार्थिक नयका आश्रय करके प्रकृतियोंके १ मप्रतिपाटोऽयम् । श्र-श्रा काप्रतिषु 'श्रणहिगमेयमेयाहिगमो', ताप्रती 'अणहिगमे पमेयाहिगमोग इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'णादवेदव-' इति ताठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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