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________________ ४७८ ] क्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १४, ३ मेदमणियोगद्दार मागदं । पञ्जवट्ठियणयमवलंचिदूण परूविजमाणपयडीणं दव्त्र-खेतकाल- भावादिपरूवणा किण्ण कीरदे ? ण, ताए परूविजमाणाए पुल्लिपरूवणादो भेदाभावेण तदणुत्तदो । तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि - पगदिअहदा समयपबद्धखेत्तपचास ति ॥ २ ॥ पयडी सीलं सहावो इच्चेयट्ठो । अट्ठो पयोजणं तस्स भावो अट्ठदा । पयडीए अट्ठदा अदा' । सा एगो अहियारो । समये प्रवध्यत इति समयप्रबद्धः | अते परिच्छिद्यते इत्यर्थः । स चासावर्थश्व समयप्रबद्धार्थः तस्य भावः सययप्रबद्धार्थता । एसो विदियो अहियारो | क्षेत्रं प्रत्याश्रयो यस्याः सा क्षेत्रप्रत्याश्रया अधिकृतिः । एवं तिविहा daणपरिमाणपरूवणा होदि । पयडिभेएण कम्मभेदपरूवणा एगो अहियारो । समयप्रबद्धभेदेण पडिभेदपरूवओ विदियो अहियारो । खेत्तमेएण पयडिभेदपरूवओ तदियो अहियारो त्ति वृत्तं होदि । पगदिअदाए णाणावरणीय दंसणावरणीय कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ३ ॥ प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिये यह अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है । शंका- पयायार्थिक नयका आश्रय करके कही जानेवाली प्रकृतियोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिक प्ररूपणा क्यों नहीं की जा रही है ? समाधान— नहीं, क्योंकि, उक्त प्ररूपणा के करने में पूर्वोक्त प्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं रहती । अतएव वह यहाँ नहीं की गई है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं - प्रकृत्यर्थता समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास ||२|| प्रकृति, शील और स्वभाव ये समानार्थक शब्द है; अर्थ शब्दका वाच्यार्थ प्रयोजन है और उसका भाव अर्थता है । प्रकृतिकी अर्थता प्रकृत्यर्थता, यह षष्ठी तत्पुरुष समास है । वह प्रथम अधिकार है । एक समय में जो बाँधा जाता है वह समयप्रबद्ध है । जो अर्यते अर्थात् निश्चय किया जाता है वह अर्थ है । समयप्रबद्ध रूप अर्थ समयप्रबद्धार्थ इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है; समयप्रबद्धार्थके भावको समयप्रबद्धार्थता कहा गया है । यह द्वितीय अधिकार है। क्षेत्र है प्रत्याश्रय जिसका वह क्षेत्रप्रत्याश्रय अधिकार है । इस प्रकार वेदनापरिमाणकी प्ररूपणा तीन प्रकार की है । प्रकृतिभेदसे कर्मभेदकी प्ररूपणा यह एक अधिकार, समयप्रबद्धों के भेदसे प्रकृतिभेदका प्ररूपक दूसरा अधिकार और क्षेत्रके भेदसे प्रकृतिभेदका प्ररूपक तीसरा अधिकार है, यह उसका अभिप्राय है । प्रकृति- अर्थता अधिकारकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? ॥ ३ ॥ १ 'पयडीए अदा पडिहदा' इत्येतावानयं पाठस्ताप्रतौ नोपलभ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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