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________________ ४३६ ] ariडागमे वेषणाखंड [४, २, १३, १८१. सह भावो वि जहण्णो होदि । [ अह ] अजहण्णो बद्धो तो तस्स भाववेपणा अजहण्णा' 'साच अनंतभागन्महिय असंखेज्जभागव्भहिय-संखेज्जभागन्भहिय-संखेज्जगुणन्भहिय- असंखेज्जगुणग्भहिय- अनंतगुणन्भहियत्तेण छट्टा णपदिदा | जस्स णामवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदी किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८१ ॥ गमं । जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाण - पदिदा ॥ १८२ ॥ खविदकम्मं सियलक्खणेण सुद्धणयविसएण परिणदेण जीवेण अजो गिचरिमसमए जदि पदेसो जहणो कदो तो कालेण सह दव्वं पि जहण्णं होदि । अह अण्णा तो दव्वम जहण्णं; जहण्णकारणाभावादा' । होतं पि पंचट्ठाणपदिदं परमाणुचरादिकमेण निरंतरं असंखेज्जगुणवड्डीए दव्वस्स पज्जवसाणुवलंभादो । तस्स खेतो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८३ ॥ सुगमं । बाँधा गया है तो क्षेत्रके साथ भाव भी जघन्य होता है । [ परन्तु यदि उक्त जीवके द्वारा नाम कर्मका अनुभाग ] अजघन्य बाँधा गया है तो भाववेदना अजघन्य होती है। उक्त अजघन्य भाव वेदना अनन्तभाग अधिक, असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगुण अधिक, असंख्यातगुण अधिक और अनन्तगुण अधिक स्वरूप से छह स्थानों में पतित है । जिस जीवके नाम कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८९ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानों में पतित है ॥ १८२ ॥ शुद्ध नयके विषयभूत क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे परिणत जीवके द्वारा यदि अयोगकेवली के अन्तिम समय में प्रदेश जघन्य कर दिया गया है तो कालके साथ द्रव्य भी जघन्य होता है । परन्तु यदि ऐसा नहीं किया गया है तो द्रव्य अजघन्य होता है, क्योंकि, उक्त अवस्था में उसके जघन्य होने का कोई कारण नहीं है । अजघन्य होकर भी वह पाँच स्थानोंमें पतित होता है, क्योंकि, उत्तरोत्तर परमाणु अधिक आदिके क्रमसे निरन्तर जाकर असंख्यातगुणवृद्धि में द्रव्यका अन्त पाया जाता है । उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८३॥ यह सूत्र सुगम है । १ ताप्रतौ 'भाववेयणा जहण्णा इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'कारणभावादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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