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________________ ४, २, ७, १९९.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया भणिदत्तादो) वग्गणावियप्पो 'एगवियप्पो जोगो सव्वजीवपदेसाणं जादो ति उत्तं होदि ? ण एस दोसो, एकिस्से वग्गणाए कत्थ वि अणेयववहारुवलंभादो। तं कधं णव्वदे ? एगपदेसियवग्गणा केवडिया ? अणंता, दुपदेसियवग्गणा अणंता, इच्चादिवग्गणवक्खाणादो णबदे। णं हि 'वक्खाणमप्पमाणं, चुण्णिसुत्तरस वि वक्खाणतणेण' समाणस्स अप्पमाणत्तप्पसंगादो। पुणो एदमुक्खिविय' पढमवग्गणाए उवरि हविदे विदियवग्गणा होदि । एवं तदिय-च उत्थ-पंचमादिवग्गणओ अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण उवरि उवरि वड्डमाणाओ' उप्पादेदव्वाओ जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगण सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ उप्पण्णाओ त्ति । पुणो एत्तियमेतवग्गणाओ घेत्तण जहण्णहाणस्स एगं फद्दयं होदि । कधं फद्दयसण्णा ? क्रमेण स्पर्द्धते वर्द्धत इति स्पर्द्धकम् । एदस्स कधमेयत्तं ? अवस्थामें योगकी एक वर्गणा होती है' ऐसा कहा गया है। लोकपूरणसमुद्धातके होनेपर समस्त जीवप्रदेशोंमें एक विकल्प रूप योगके होनेसे वर्गणा एक होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंकाका समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक वर्गणामें कहींपर अनेकत्वका भी व्यवहार उपलब्ध होता है। शंका-वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-एक प्रदेशवाली वगणा कितनी हैं ? अनन्त हैं। दो प्रदेशवाली वर्गणा अनन्त हैं, इत्यादि वर्गणा व्याख्यानसे जाना जाता है। यदि कहा जाय कि यह वर्गणाव्याख्यान अप्रमाण है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, व्याख्यान रूपसे चूर्णिसूत्र भी समान है इसलिए उसकी भी अप्रमाणताका प्रसंग आता है। पुनः इसको उठाकर प्रथम वर्गणाके आगे रखनेपर द्वितीय वर्गणा होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे आगे आगे अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र वर्गणाओंके उत्पन्न होने तक तृतीय, चतुर्थ व पंचम आदि वर्गणाओंको उत्पन्न कराना चाहिये । इतनी मात्र वर्गणाओंको ग्रहण कर जघन्य स्थानका एक स्पर्धक होता है। शंका-स्पर्धक संज्ञा कैसे है ? समाधान-क्रमसे जो स्पर्धा करता है अर्थात् बढ़ता है वह स्पर्द्धक है। शंका-वह एक कैसे है ? १ 'प्रतिषु' ण वि वक्खाण-' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'विवक्खाणतणेण' इति पाटः। ३ तापतौ 'एदमक्खिविय' इति पाठः । ४ अ-श्राप्रत्योः 'वढमाणीए', ताप्रती 'बड्ढमाणीए (ो) इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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