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________________ २३४} छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, २६७. एवं विदट्ठाणेसु अपुणरुत्तट्ठाणपरूवणं कस्सामो-एत्थ हेहिमपढमढाणपंतीए जं जहण्णट्ठाणं तमपुणरुत्तं, तेण समाणण्णट्ठाणामावादो' । जं विदियट्टाणं तं पुणरुत्तं, उवरिमविदियपरिवाडीए जहण्णट्ठाणेण समाणत्तादो। हेहिमतदियहाणं विदियपरिवाडीए विदियट्ठाणेण समाणं । एवं णेयव्वं जाव पढमपरिवाडीए पढमकंदयस्स चरिमउव्वंके त्ति । पुणो उवरिमचत्तारिअंकहाणमपुणरुत्तं, उवरि सगपणिहिट्ठिदहाणेण चत्तारिअंकस्स सरिसत्ताभावादो। पुणो तदणंतरउवरिमउव्वंकट्ठाणं पुणरुत्तं, विदियपरिवाडीए पढमचत्तारिअंकेण समाणत्तादो। एवं पुव्वं व विदियकंदयउव्वंकट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि चेव होदण गच्छंति, विदियपरिवाडीए विदियकंदयउव्वंकट्ठाणेहि समाणत्तादो । पुणो पढमपंतीए विदियचत्तारिअंकमपुणरुत्तं, उवरिमपंतीए सगोवरिट्ठिदउव्वंकाण समाणत्तामावादो। एवं भणिजमाणे पढमपंतीए सव्वुवंकट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि चेव होति । पुणो तेसिं पुणरुत्तट्ठाणाणमवणयणे कदे पढमाए हाणपंतीर चत्तारिअंक-पचंक छअंक-सत्तंकअट्ठकट्ठाणाणि चेव अपुणरुत्ताणि होदूण लभंति । जहा पढमपरिवाडीए उव्वंकट्ठाणाणि हेट्टदो विदियपरिवाडीए उव्वंकट्टाणेहि समाणाणि त्ति अवणिदाणि तहा विदियपरिवाडीए पढमउव्वंकं मोत्तूण सेसस्स उव्वंकट्ठणाणि तदियपरिवाडीए उव्वंकट्ठाणेहि समाणाणि इस प्रकारसे स्थित स्थानों में अपुनरुक्त स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं-यहाँ अधस्तन प्रथम स्थानपंक्तिका जो जघन्य स्थान है वह अपुनरुक्त है, क्योंकि, उसके समान अन्य स्थानका अभाव है। जो द्वितीय स्थान है वह पुनरुक्त है, क्योंकि, वह उपरिम द्वितीय परिपाटीके जघन्य स्थानके समान है। अधस्तन तृतीय स्थान द्वितीय परिपाटीके द्वितीय स्थानके समान है। इस प्रकारसे प्रथम परिपाटीसम्बन्धी प्रथम काण्डकके अन्तिम ऊबैंक तक ले जाना चाहिये। पुनः उपरका चतुरंकस्थान अपुनरुक्त है, क्योंकि, ऊपर अपनी प्रणिधिमें स्थित स्थानसे चतुरंककी समानताका अभाव है। तदनन्तर उपरिम ऊर्वकस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि, वह द्वितीय परिपाटीके प्रथम चतुरंकसे समान है। इस प्रकार पहिलेके समान द्वितीय काण्डकके ऊर्वक स्थान पुनरुक्त ही होकर जाते हैं, क्योंकि, वे द्वितीय परिपाटीके द्वितीय काण्डक सम्बन्धी ऊर्वकस्थानोंके समान हैं । पुनः प्रथम पंक्तिका द्वितीय चतुरंक अपुनरुक्त है, क्योंकि, उपरिम पंक्ति में अपने ऊपर स्थित ऊर्व से उसकी समानता नहीं है। इस प्रकार कथन करनेपर प्रथम पंक्तिके सब ऊर्वकस्थान पुनरुक्त ही हैं। पुनः उन पुनरुक्त स्थानोंका अपनयन करनेपर प्रथम स्थानपंक्तिके चतुरंक,पंचांक, षडंक, सप्तांक और अष्टांक ये स्थान ही अपुनरुक्त होकर पाये जाते हैं । जिस प्रकार प्रथम परिपाटीके ऊर्वंकस्थान चूंकि नीचे द्वितीय परिपाटीके ऊर्वकाथानोंसे समान हैं, अतः उनका अपनयन किया गया है, उसी प्रकार चूंकि द्वितीय परिपाटीके प्रथम ऊर्वकको छोड़कर शेष ऊर्वकस्थान तृतीय परिपाटीके ऊवकस्थानोंके समान हैं अतएव उनका अपनयन करना चाहिये । इस प्रकार पुनरुक्त १ अ-श्राप्रत्योः 'समाणहाणाभावादो' इति पाठः । २ प्रतिषु 'सगपणिदि' इति पाठः । ३ अ-श्राप्रत्योः '-छिद उव्वंकाण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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