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________________ ८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ७, ४. ओमा, हाइदे वि अजहण्णत्तदंसणादो। सिया विसिट्ठा, वढिदे वि तदुवलंभादो। सिया णोम-णोविसिट्ठा, वड्डि-हाणीहि विणा अवविदअजहण्णाणुभागदंसणादो । एवमजहण्णपदं दसवियप्पं होदि १० । संपहि छट्ठमपुच्छासुत्तं पडुच्च अत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा--णाणावरणीयस्स सादियवेयणा सिया उकस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा । सिया अणादिया, णाणाजीवावेक्खाए सादित्तणेण वि आदिभावाणुवलंभादो। सिया धुवा, णाणाजीवे पडुच्च सव्वकालेसु सादित्तदंसणादो। सिया अधुवा, सादिभावमावाणाणुभागस्स विणासदंसणादो। सिया जुम्मा, अणुभागम्मि फद्दय-वग्गणाविभागपडिच्छेदेसु तिसु वि कालेसु कदजुम्मभावस्सेव दंसणादो। सिया ओमा, हाइदे वि सादित्तदंसणादो । सिया विसिट्ठा, वड्डिदे वि तदुवलंभादो। सिया णोमणोविसिट्ठा, वड्डि-हाणीहि विणा वि तदवट्ठाणदंसणादो । एवं सादियपदमेक्कारसवियप्पं होदि ११ ।। संपहि सत्तमपुच्छासुतं पडुच्च परूवणा कीरदे। तं जहा–अणादियणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा। सिया सादिया, णाणावरणीयअणुभागविसेसं पडुच्च सादित्तदंसणादो। सिया धुवा, अणुभागपायी जाती है। कथञ्चित् ओम है, क्योंकि, हानिके होनेपर भी अजघन्यता देखी जाती है। कथनित विशिष्ट है, क्योंकि, द्धिके होनेपर भी अजघन्यता देखी जाती है। कथञ्चित नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धि व हानिके विना अजघन्य अनुभागका अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकार अजघन्य पद दस (१०) भेद स्वरूप है। अब छठे पृच्छासूत्रका आश्रय करके अर्थप्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैज्ञानावरणीयकी सादि वेदना कथञ्चित् उत्कृष्ट है, कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है, कथश्चित् जघन्य है व कथञ्चित् अजघन्य है। कथञ्चित् अनादि है, क्योंकि; नाना जीवोंकी अपेक्षा सादि स्वरूपसे भी आदिभाव नहीं पाया जाता। कथञ्चिद् ध्रुव है, क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा करके सब कालमें उसकी सादिता देखी जाती है। कथञ्चित् अध्रुव है, क्योंकि, सादिताको प्राप्त अनुभागका विनाश देखा जाता है। कथश्चित् युग्म है, क्योंकि, तीनों ही कालोंमें अनुभागके स्पर्धकों, वर्गणाओं और अविभागप्रतिच्छेदोंमें कृतयुग्मता ही देखी जाती है । कथञ्चित् ओम है, क्योंकि, हानिके होनेपर भी सादिता पायी जाती है। कथञ्चित् विशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धिके होनेपर भी सादिता पायी जाती है। कथश्चित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धि व हानिके विना भी उसका अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकार सादिपद ग्यारह (११) भेद रूप है। अब सातवें पृच्छासूत्रकी अपेक्षा करके प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- अनादि ज्ञानाबरणवेदना कथम्वित् उत्कृष्ट है, कथञ्चित् अनुत्कृष्ट है. कथञ्चित् जघन्य है व कथचित् अजघन्य है । कथश्चित् सादि है, क्योंकि, ज्ञानावरणीयके अनुभागविशेषका आश्रय करके सादिता देखी १. अप्रतौ 'छसुपुच्छासुत्त', ताप्रतौ 'छह [ सु] पुच्छासुत्त' इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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