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________________ ४०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, ७५. द्विदित्तवलंभादो। ण च तेत्तीससागरोवमाणमेत्थ बंधो संभवदि, अइसंकिलेसेण भुंजमाणाउअकम्मक्खंधाणं बहूणं गलणप्पसंगादो। तम्हा जलचरेसु उक्कस्सदव्वसामिएसु आउवबंधो अणुक्कस्तो चेव । होतो वि पुवकोडिमेत्तो चेव, हेडिमआउअवियप्पेसु चज्झमाणेसु आउअबंधगद्धाए थोवत्तप्पसंगादो । असंखेज्जगणहीणतं कत्तो णबदे ? सादिरेयपुरकोडीए तेत्तीससागरोवमेसु पुन्चकोडितिभागाहिएसु ओवट्टिदेसु असंखेज्जरूवोवलंभादो। तस्स भावदो किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ॥ ७५ ॥ सुगमं । णियमा अणुक्कस्सा अणंतगुणहीणा ॥ ७६ ॥ किमहमुक्कस्सा भाववेयणा एत्थ ण होदि ? ण, अप्पमत्तसंजदेण बद्धदेवाउअम्मि जादुक्कस्साणुभागस्स तिरिक्खाउअम्मि वृत्तिविरोहादो। जलचराउअभावस्स उक्कस्सभावादो' अणंतगुणत्तं कत्तो णव्वदे ? तिरिक्खाउअअणुमागादो देवाउअअणुभागो अणंतगुणो त्ति भणिदचउसद्विवदियअप्पाबहुगादो णबदे। सागरोपम प्रमाण आयुको बाँधनेवाले जीवोंमें ही उत्कृष्ट स्थिति बन्ध पाया जाता है। परन्तु यहाँ तेतीस सागरोपमोंका बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर अत्यन्त संक्तशसे भुज्यमान आयु कर्मके बहुतसे स्कन्धोंके गलनेका प्रसंग आता है । इस कारण उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामी जलचर जीवोंमें आयुका बन्ध अनुत्कृष्ट ही होता है। अनुस्कृष्ट होकर भी वह पूर्वकोटि मात्र ही होता है, क्योंकि, नीचेके श्रायुविकल्पोंके चाँधनेपर आयुबन्धक कालके स्तोक होनेका प्रसंग आता है। शंका-उसकी असंख्यातगुणी हीनता किस प्रमाणसे जानी जाती है ? . समाधान-साधिक पूर्वकोटिका पूर्वकोटित्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपमोंमें भाग देनेपर चूंकि असंख्यात रूप पाये जाते हैं, अतः इसीसे उसकी असंख्यातगुणहीनता सिद्ध है। उसके उक्त वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनत्कृष्ट ॥७५॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७६ ॥ शंका-यहाँ उत्कृष्ट भाववेदना क्यों नहीं होती है ? समाधान नहीं, क्योंकि, अप्रमत्तसंयतके द्वारा बाँधी गई देवायुमें उत्पन्न उत्कृष्ट अनुभागके तियेच आयुमें रहनेका विरोध है। शंका-उत्कृष्ट भावकी अपेक्षा जलचर सम्बन्धी आयुका भाव अनन्तगुणा हीन है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। समाधान-यह “तिथंच आयुके अनुभागसे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा है" इस चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। . १ ताप्रतौ 'उक्कस्सदव्वादो' इति पाठ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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