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________________ ४४० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड लियमा अजहण्णा अनंतगुणन्भहिया ॥ १६८ ॥ कुदो सकस विसोहीए हदसमुप्पत्तियं काढूण उत्पादजहण्णाणुभागं पेक्खिय सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्वेण बद्धुच्चा गोदुकस्साणुभागस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो | गोदजहण्णाणुभागे वि उच्चागोदाणुभागो अस्थि' त्ति णासंकणिज्जं, बादरते उकाइएस पलि दोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण उच्वेल्लिउच्चागोदेसु अइविसोहीए घादिदणीचागोदे गोदस्स जहण्णाणुभागब्भुवगमादो । जस्स गोदवेणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १६६ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा चउद्वाणपदिदा ॥ २०० ॥ एत्थ जहा णामदव्वस्स चउडाणपदिदत्तं परूविदं तहा परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २०१ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ [ ४,२, १३, १६८. वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १९८ ॥ कारण कि सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा हतसमुत्पत्तिको करके उत्पन्न कराये गये जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके द्वारा बाँधा गया उच्च गोत्रका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है । २०२ ॥ शङ्का - गोत्र के जघन्य अनुभाग में भी उच्चगोत्रका जघन्य अनुभाग होता है ? समाधान - ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, जिन्होंने पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र कालके द्वारा उच्चगोत्रका उद्वेलन किया है व जिन्होंने अतिशय विशुद्धिके द्वारा नीचगोत्रका घात कर लिया है उन बादर तेजस्काइक जीवों में गोत्रका जघन्य अनुभाग स्वीकार किया गया है । अतएव गोत्रके जघन्य अनुभाग में उच्चगोत्रका अनुभाग सम्भव नहीं है । जिस जीवके क्षेत्रकी अपेक्षा गोत्रकी वेदना जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१९९॥ Jain Education International यह सूत्र सुगम है । वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ २०० ॥ यहाँ जिस प्रकार से नामकर्मसम्बन्धी द्रव्यके चार स्थानों में पतित होनेकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से गोत्र के विषय में भी उक्त प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २०१ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। २०२ ॥ १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ श्रा-का-ताप्रतिषु 'गोदजहण्णाणुभागो श्रत्थि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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