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________________ ४, २, ११, ६.] वेयणगदिविहाणाणियोगहारं [ ३६७ एत्थ परिहारो वुच्चदे -मण-वयण-कायकिरियासमुप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम' । सो च कम्मबंधस्स कारणं । ण च सो थोवेसु जीवपदेसेसु होदि, एगजीवपयतस्स थोवावयवेसु चेव वुत्तिविरोहादो एकम्हि जीवे खंडखंडेण पयत्तविरोहादो वा । तम्हा द्विदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अत्थि त्ति णव्वदे । ण जोगादो णियमण जीवपदेसपरिप्फंदो होदि, तस्स तत्तो अणियमेण समुप्पत्तीदो। ण च एकांतेण णियमो णत्थि चेव, जदि उप्पज्जदि तो तत्तो चेव उप्पज्जदि ति णियमुवलंभादो। तदो द्विदाणं पि जोगो अस्थि त्ति कम्मबंधभूयमिच्छियव्वं । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥४॥ जहा णाणावरणीयस्स दुविहा गदिविहाणपरूवणा कदा तहा एदेसिं तिण्णं पि कम्माणं कायव्वं, छदुमत्थेसु चेव वट्टमाणतणेण भेदाभावादो। वेयणीयवेयणा सिया हिदा ॥ ५ ॥ कुदो ? अजोगिकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभादो। सिया अद्विदा॥६॥ शंकाका समाधान- यहाँ उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। मन, वचन एवं काय सम्बन्धी क्रियाकी उत्पत्ति में जो जीवका उपयोग होता है वह योग और वह कर्मबन्धका कारण है । परन्तु वह थोड़ेसे जीवप्रदेशोंमें नहीं हो सकता, क्योंकि, एक जीवमें प्रवृत्त हुए उक्त योगकी थोड़ेसे ही अवयवोंमें प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है, अथवा एक जीवमें उसके खण्ड-खण्ड रूपसे प्रवृत्त होनेमें विरोध आता है । इसलिये स्थित जीवप्रदेशोंमें कर्मबन्ध होता है, यह जाना जाता है। दूसरे योगसे जीवप्रदेशोंमें नियमसे परिस्पन्द होता है, ऐसा नहीं है; क्योंकि योगसे अनियमसे उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकान्ततः नियम नहीं है, ऐसी भी बात नहीं है; क्योंकि, यदि जीवप्रदेशोंमें परिस्पन्द उत्पन्न होता है तो वह योगसे ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित जीवप्रदेशोंमें भी योग होनेसे कर्मबन्धको स्वीकार करना चाहिये। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के विषयमें जानना चाहिये ॥४॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके गतिविधानकी दो प्रकारकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन कर्माकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, ये कर्म छद्मस्थोंके ही विद्यमान रहते हैं इसलिए इनकी प्ररूपणामें ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणासे कोई भेद नहीं है। वेदनीय कर्मकी वेदना कथंचित स्थित है ॥५॥ इसका कारण यह है कि अयोगकेवली जिनमें समस्त योगोंके नष्ट हो जानेसे जीवप्रदेशोंका संकोच व विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं। कथंचित् वह अस्थित है ॥ ६ ॥ १ ताप्रतौ 'उवजोगो णाम' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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