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________________ [२१७ ४,२, ६, ६.] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तबिहाणं जीवा एग-दु-ति-चदु-पंचिंदियभेदेण वा छक्कायभेदेण वा देसादिभेदेण वा अणेयविहा । णिच्चेयण-मुत्तपोग्गलक्खंधसमवाएण 'भट्ठसगसरुवस्स कधं जीवत्तं जुञ्जदे ? ण, अविणट्ठणाण-दसणाणमुवलंभेण जीवस्थित्तसिद्धीदो। ण तत्थ पोग्गलक्खंधो वि अस्थि, पहाणीकयजीवभावादो। ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चेव, परमत्थेण वि तत्तो तेसिमभेदुवलंभादो। एवंविहअप्पणाए णाणावरणीयवेयणा सिया जीवाणं होदि। कधमेक्किस्से वेयणाए भूओ सामिणो ? ण, अरहंताणं पूजा इच्चत्थ बहूणं पि एक्किस्से पूजाए सामित्तुबलंभादो। सिया णोजीवाणं वा ॥ ५ ॥ ___ सरीरागारेण द्विदकम्म-णोकम्मक्खंधाणि णोजीवा, णिच्चेयणत्तादो। तत्थ द्विदजीवा वि णोजीवा, तेसिं तत्तो भेदाभावादो। ते च णोजीवा अणेगा संठाण-देस-काल वण्ण-गंधादिभेदप्पणाए । तेसिं णोजीवाणं च णाणावरणीयवेयणा होदि । सिया जीवस्स च णोजोवस्स च ॥६॥) एक, दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियोंके भेदसे, अयवा छह कायोंके भेदसे, अथवा देशादिके भेदसे जीव अनेक प्रकारके हैं। शंका - चेतना रहित मूर्त पुद्गलस्कन्धोंके साथ समवाय होनेके कारण अपने स्वरूप (चैतन्य व अमूर्तत्व ) से रहित हुए जीवके जीवत्व स्वीकार करना कैसे युक्तियुक्त है ? ____समाधान नहीं, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुए ज्ञान दर्शनके पाये जानेसे उसमें जीवत्वका अस्तित्व सिद्ध है। वस्तुतः उसमें पुद्गलस्कन्ध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीवभावकी प्रधानता की गई है। दूसरे, जीवमें पुद्गलस्कन्धोंका प्रवेश बुद्धिपूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थतः भी उससे उनका अभेद पाया जाता है। इस प्रकारकी विवक्षासे ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् बहुत जीवोंके होती है। शंका-एक वेदनाके बहुतसे स्वामी कैसे हो सकते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'अरहन्तोंकी पूजा' यहाँ बहुतोंके भी एक पूजाका स्वामित्व पाया जाता है। कथंचित् वह बहुत नोजीवोंके होती है ॥ ५ ॥ शरीराकारसे स्थित कर्म व नोकर्म स्वरूप स्कन्धोंको नोजीव कहा जाता है, क्योंकि, वे चैतन्य भावसे रहित हैं। उनमें स्थित जीव भी नोजीब हैं, क्योंकि, उनका उनसे भेद नहीं है। उक्त नोजीव अनेक संस्थान, देश, काल, वर्ण व गन्ध आदिके भेदकी विवक्षासे अनेक हैं। उन नोजीवोंके ज्ञानावरणीय वेदना होती है। वह कथंचित जीव और नोजीब दोनोंके होती है ॥६॥ १ अ-प्रतौ 'अ' इति पाठः । छ. १२-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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