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________________ ४, २, ७, २०२. ] वेयणमहाहियारे वेगभावविहाणे विदिया चूलिया [ १३३ तं च जहण्णट्ठाणमिदि घेत्तव्वं । एदं पुध पुध असंखेज्जलोग मेत्तछट्ठाण सलागाहि गुणिदे सव्वद्वाणाणं अप्पिदवडीयो होंति । एदासु एगकंदएण पुध पुध ओवट्टिदासु लद्धमपणो कंदयसलागाओ होंति । एवं ट्ठविय एदासिं परूवणा सुत्ते उद्दिद्वा । तं जहा -- अनंतभागपरिवडि कंदयं असंखेज्जभागपरिवड्डिकंदयं संखेज्जभागपरिवड्डिकंदयं संखेज्जगुपरिवकिंदयं असंखेजगुणपरिवड्डिकंदयं अनंतगुणपरिवड्डिकंदयं पि अस्थि । कधमेत्थ बहूण गवयणणिद्देसो ? ण, जादिदुवारेण बहूणं पि एगत्ताविरोहादो । एदं परूवणासुतं देसामा सयं, सूचिदपमाणप्पा बहुगत्तादो । तेण तेसिं दोष्णं पि एत्थ परूवणा कीरदे | तं जहा - अनंतभागवड्डि- असंखेज भागवड्ढि - [ संखेज भागवड्डि- ] संखेजगुणवड्डि-असंखेगुणवड्डि-अतगुणवडीओ च असंखेज नागमेत्ताओ । कुदो ? असंखेज लोग मे तद्वाणाण सलागादि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसग-सगकंदयसलागासु गुणिदासु वि असंखेज्जलोग मेत्तरा सिसमुप्पत्तीए । पमाणं गदं । अप्पाबहुगं उच्चदे—सव्वत्थोवाओ अनंतगुणवड्डिकंदय सलागाओ । असंखेज्जगुणवड्डिकंदयसलागाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज दिमागमेत्तेगं कंदयं । संखेज्ञगुणवड्डि कंदयसलागाओ असंखेज गुणाओ । को गुणगारो ९ रूवाहियकंदयं गुणवृद्धियां काण्डक प्रमाण हैं । उनकी संदृष्टि -४ | अष्टांक एक है । वह जघन्य स्थान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इसको पृथक् पृथकू असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानशलाकाओंसे गुणित करनेपर सब स्थानोंकी विवक्षित वृद्धियां होती हैं । इनको एक काण्डकसे पृथक् पृथक् अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतनी अपनी काण्डकशलाकायें होती हैं। इस प्रकार स्थापित करके इनकी प्ररूपणा सूत्रमें कही है । यथा - अनन्तभागवृद्धिकाण्डक, असंख्यात भागवृद्धिकाण्डक, संख्यात भागवृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक भी हैं । शंका- यहाँ बहुतों के लिये एक वचनका निर्देश कैसे किया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जातिके द्वारा बहुतों के भी एक होने में कोई विरोध नहीं है । यह प्ररूपणासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह प्रमाण और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोंका सूचक है । इसलिये उन दोनोंकी भी यहाँ प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये असंख्यात लोक प्रमाण हैं, क्योंकि, असंख्यात लोक मात्र षटूस्थानशलाकाओं के द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अपनी अपनी काण्डकशलाकाओंको गुणित करनेपर भी असंख्यात लोक मात्र राशि उत्पन्न होती है । प्रमाण समाप्त हुआ । अल्पबहुत्वको कहते हैं - अनन्तगुणवृद्धि काण्डक शलाकायें सबसे स्तोक हैं। उनसे श्रसंख्यागुणवृद्धिकाण्डक शलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र एक काण्ड है । उनसे संख्यातगुणवृद्धि काण्डक शलाकयें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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