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________________ २२४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४,२,७, २६७. संतहाणाणं उप्पत्ती ? ण, घादकारणपरिणामभेदेण घादिदसेसाणुभागस्स वि भेदगमणं पडि विरोहाभावादो । घादपरिणामेसु जहा अणंतगुणवडि-अणंतभागवड्डीणं सव्वजीवरासी चेव गुणगारो भागहारो च जादो तहा संतकम्मट्ठाणेसु धादिदपरिणामाणुसारेण छवड्डिमु. वगएसु सधजीवरासी चेव गुणगारो भागहारो च किण्ण पसज्जदे ? ण, संतकम्मट्ठाणुप्पत्तिणिमित्तघादपरिणामाणमणंतगुणभागवड्डीसु सिद्धाणभणंतभागमेत्तभागहार-गुणगारे' मोत्तण सव्वजीवरासिभागहार-गुणगाराणं तत्थाभावादो। बंधट्टाणागारेण जे घादणि मित्ता परिणामा तेसिमणंतभागवड्डि-अणंतगुणवड्डीयो सब्बजीवरासिभागहार-गुणगारेहि वड्डेति । तेहि घादिदसेसाणुभागहाणं पि कारणाणुरूवेण चेदि त्ति घेत्तव्यं । पुणो अण्णेण चदुचरिमअज्झवसाणहाणपरिणदेण चरिमउव्वंके घादिदे चउत्थमणंतभागवड्डिाणं होदि । एवं हदसमुप्पत्तियहाणाणि असंखेज्जलोगछहाणपरिणाममेत्ताणि कमेण छबिहाए वड्डीए उप्पादेदव्वाणि जाव सव्वजहण्णविसोहिहाणेण पज्जवसाणउव्वक घादिय उप्पाइयउक्कस्साणुभागहाणे ति । संपहि बंधससुप्पत्तियहाणाणं चरिमउव्वंकमस्सिदूण चरिमअटक-उव्यंकाणं विचाले हदससुप्पत्तियट्ठाणाणि एत्तियाणि चेव उप्प समाधान-नहीं, क्योंकि घातके कारणभूत परिणामोंके भिन्न होनेसे घातनेसे शेष रहे अनुभागके भी भिन्न होनेमें कोई विरोध नहीं है । शंका-जिस प्रकार घातपरिणामोंमें अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिका गुणकार व भागहार सब जीवराशि ही हुई है, उसी प्रकार घातित परिणामोंके अनुसार छह प्रकारकी वृद्धिको प्राप्त हुए सत्कर्मस्थानों में सब जीवराशि ही गुणकार और भागहार होनेका प्रसंग क्यों न होगा? समाधान नहीं क्योंकि सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत घातपरिणामोंकी अनन्तगुणवृद्धि व अनन्तभागवृद्धिमें सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र भागहार और गुणकारको छोड़कर वहाँ सब जीवराशि भागहार व गुणकार होना सम्भव नहीं है। बन्धस्थानोंके आकारसे जो घातके निमित्तभूत परिणाम हैं उनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि सब जीवराशि रूप भागहार व गुणकारसे वृद्धिको प्राप्त होती हैं । उनके द्वारा घातनेसे शेष रहा अनुभागस्थान भी कारणके अनुरूप ही रहता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। पुनः चतुश्चरम अध्यवसानस्थान स्वरूपसे परिणत अन्य जीवके द्वारा अन्तिम ऊर्वकका घात किये जानेपर चतुर्थ अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानोंके बराबर हतसमुत्पत्तिकस्थानोंको क्रमशः छह प्रकारकी वृद्धिके द्वारा तब तक उत्पन्न कराना चाहिये जब तक कि सर्वजघन्य विशुद्धिस्थानके द्वारा पर्यवसान ऊवकको घातकर उत्पन्न कराया गया उत्कृष्ट अनुभागस्थान प्राप्त नहीं होता। अब बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंके अन्तिम ऊर्वकका आश्रय करके अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके बीचमें हतसमुत्पत्तिकस्थान इतने मात्र ही होते हैं, अधिक नहीं होते, क्योंकि, कारणके १ प्रतिषु 'गुणगारेण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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