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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २ इत्ति णि(सो। भवसिद्धियदुचरिमसमए जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ चरमसमयसुहमसांपराइएण बद्धसादावेयणीयउकस्साणुभागसंतकम्मस्स अत्थित्तदसणादो । 'असादवेदगस्स' इत्ति विसेसणं किमद्वं कीरदे ? सादं वेदयमाणस्स दुचरिमसमए उदयाभावेण विणासिदअसादस्स सादुक्कस्सं धरेमाणचरिमसमयभवसिद्धियस्स वेदणीयजहण्णसामित्तविरोहादो। असादं वेदयमाणस्स पुण वेयणीयाणुभागो जहण्णो होदि, उदयाभावेण भवसिद्धियद्चरिसमए विणसादाणभागसंतत्तादो खवगसेडीए बहुसो घादं पत्तअणभागसहिदअसादावेदणीयस्स चेव भवसिद्धियचरिमसमयदंसणादो । असादं वेदयमाणस्स सजोगिभगवंतस्स भुक्खा-तिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिजमाणस्स कधं ण भुत्ती होज ? ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतहाए समोहस्स मरणभएण भुजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलितविरोहादो । संकिलेसाविणाभाविणीए भुक्खाए दज्झमाणस्स वि केवलितं जुज्जदि त्ति समाणो दोसो ति ण पञ्चवटेयं, सगसहायघादिकम्माभावेण णिस्सत्तित्तमावण्णअसादावेदणीयउदयादो भुक्खा-तिसाणमणुप्पत्तीए । णिप्फलस्स पर
शंका-द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उसके अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक द्वारा बांधे गये सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व देखा जाता है ।
शंका-'असातावेदनीयका वेदन करनेवालेके' यह विशेषण किसलिये किया जारहा है ?
समाधान-[ नहीं, क्योंकि ] जो सातावेदनीयका वेदन कर रहा है और जिसने द्विचरम समयमें उदयाभाव होनेसे असातावेदनीयका नाश कर दिया है उस सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागको धारण करनेवाले अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिकके वेदनीयका जघन्य स्वामित्व मानने में विरोध आता है। परन्तु असाताका वेदन करनेवालेके वेदनीयका अनुभाग जघन्य होता है, क्योंकि एक तो उदयाभाव होनेके कारण भवसिद्धिकके द्विचरम समयमें सातावेदनीयके अनुभाग सत्त्वका विनाश हो जाता है और दूसरे क्षपकश्रेणिमें बहुत बार घातको प्राप्त हुए अनुभाग सहित असातावेदनीयका ही भवसिद्धिकके अन्तिम समयमें सत्त्व देखा जाता है ।
शंका-असातावेदनीयका वेदन करनेवाले तथा क्षुधा तृषा आदि ग्यारह परीषहों द्वारा बाधाको प्राप्त हुए ऐसे सयोगिकेवली भगवानके भोजनका ग्रहण कैसे नहीं होगा?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन-पानमें उत्पन्न हुई इच्छासे मोहयुक्त है तथा मरणके भयसे जो भोजन करता है, अतएव परीषहोंसे जो पराजित हुआ है ऐसे जीवके केवली होनेका विरोध है । संक्लेशके साथ अविनाभाव रखनेवाली क्षुधासे जलनेवालेके भी केवलीपना बन जाता है, इस प्रकार यह दोष समान ही है; ऐसा भी समाधान नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अपने सहायक घातिया कर्माका अभाव हो जानेसे अशक्तताको प्राप्त हुए असातावेदनीयके उदयसे क्षुधा. व तृषाकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
आन्तम समयवर्ती भव कर दिया है उस सातार जिसने द्विचरम
पराध आता है।
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