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________________ ४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२९ बंधट्ठाणे घादिजमाणे पुव्वुप्पण्णट्ठाणाणं हेट्ठा परिणामट्ठाणमेत्ताणि चेव घादिदट्ठाणाणि उप्पजंति एवं तिचरिमादिअणुभागबंधट्टाणाणि धादिय अटुंक-उव्वंकाणं विच्चाले विच्चाले छट्ठाणमेत्ताओ संतहाणपंतीयो परिणामट्ठाणमेत्तायामाओ उप्पाएदव्वाश्रो) एत्थ पुणरुत्तट्टाणपरूवणा पुत्र व कायव्वा । एवं दुचरिमअट्ठक-उव्यंकाणं विच्चाले संतकॅम्मट्ठाणपरूवणा कदा। संपहि दोछट्ठाणेहि परिहीणअणुभागबंधट्ठाणे पुव्वं व धादिजमाणे तिचरिमअट्ठक उव्वंकाणं विच्चाले असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि रूवूणछट्ठाणसहियाणि उप्पजति । अहियाणि किण्ण उप्पजंति ? ण संतकम्मट्ठाणकारणविसोहिद्वाणाणं अब्भहियाणमभावादो । पुणो दुचरिमादिट्ठाणेसु धादिज्जमाणेसु एककम्हि अणुभागबंधहाणे विसोहिट्ठाणमेत्ताणि चेव संतकम्मट्टाणाणि लब्भंति । एवं तिचरिमअहंक-उव्वंकाणं विच्चाले उप्पजमाणअसंखेञ्जलोगमेत्तसंतकम्मट्ठाणाणं परूवणा कदा होदि । एवं चदुचरिम-पंचचरिमादिअसंखेजलोगमेतबंधसमुप्पत्तिय अट्ठक-उव्वंकाणं विच्चालेसु पुव्वापरायामेण दक्खिणुत्तरविक्खंभेण असंखेजलोगमेत्ताणि संतकम्महाणपदराणि उप्पजंति । किं सव्वेसिं अहंक-उव्वंकाणं विच्चालेसु परिणामट्ठाणमेत्तायामेण छट्ठाणमेत्त आदि सब परिणामोंके द्वारा पूर्व विवक्षित बन्धस्थानके घाते जानेपर पहिले उत्पन्न हुए स्थानोंके नीचे परिणामस्थानोंके बराबर ही घातित स्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार त्रिचरम आदि अनुभाग बन्धस्थानोंको घातकर अष्टांक और उवकके बीच-बीच में परिणामस्थान प्रमाण आयामवाली षट्स्थानके बराबर सत्त्वस्थानपंक्तियोंको उत्पन्न कराना चाहिये । यहाँ पुनरुक्त स्थानोंकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करनी चाहिये । इस प्रकार द्विचरम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें सत्कर्मस्थानों की प्ररूपणा की गई है। अब दो षस्थानोंसे होन अनुभागबन्धस्थानको पहिलेके समान घातनेपर विचरम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें एक कम षट्स्थान सहित असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान उत्पन्न होते हैं। शंका-अधिक क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सत्त्वस्थानोंके कारणभूत विशुद्धिस्थान अधिक नहीं हैं। पुनः द्विचरम आदि स्थानोंके घातनेपर एक एक अनुभागबन्धस्थानमें विशुद्धिस्थानोंके बराबर ही सत्कर्मस्थान पाये जाते हैं। इस प्रकार त्रिचरम अष्टांक और उर्वकके मध्यमें उत्पन्न होनेवाले असंख्यात लोक प्रमाण सत्कर्मस्थानोंकीप्ररूपणा समाप्त होती है। ___ इस प्रकार चतुश्चरम और पंचचरम आदि असंख्यातलो प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवंकके अन्तरालों में पूर्व पश्चिम आयाम और दक्षिण उत्तर विष्कम्मसे असंख्यात लोक मात्र सत्कर्मस्थानप्रतर उत्पन्न होते हैं। शंका-क्या सब अष्टांक और ऊर्वंकके अन्तरालोंमें परिणामस्थानोंके बराबर आयाम और १-अ-आप्रत्योः 'अहियाण किण्ण उप्पजते' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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