SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, १०, ३५. ] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं [ ३४७ वलंभादो | ण पयडिभेदेण भेदो, एकिस्से णाणावरणीयपयडीए भेदववहारादंसणादो । ण समयभेदेण भेदो, बज्झमाणियाएं वट्टमाणविसयाए कालबहुत्ताभावादो । तम्हा बज्झमणिया वेणा त्थि बहुवयणमिदि घेत्तव्वं । संपहि उदिण्णाए विण जीवबहुत्तेण बहुत्तं, तहाविहववहाराभावादो | ण पयडिबहुतेण उदिष्णवेयणाए बहुत्तं निरुद्वेयपयडित्तादो । कालबहुतं चैव अस्सिदूण बहुवयणसुत्तभंगपरूवणा कीरदे । तं जहा - एयस्स जीवस्स एयपयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उदिण्णाओ वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पडी अणेयसमयपबद्धा सिया उदिष्णाओ वेयणाओ । एवमेदस्स सुत्तस्स वे चैव भंगा [२] । सिया उवसंताओ वेयणाओ ॥ ३४ ॥ एदस्स सुत्तस्स भंगपरूवणं कस्सामो । तं जहा - एयस्स जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपत्रद्धा उवसंताओ वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाया पयडी अणेयसमयपबद्धा सिया उवसंताओ । एवमेदस्स सुत्तस्स ने चैव भंगा [२] | संपहि दुसंजोग परूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि सिया बज्झमाणिया उदिण्णा च ॥ ३५ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्ये भण्णमाणे ताव बज्झमाण- उदिण्णाणं |१३ दुसंजोगसुत्तप वरणीय प्रकृतिके भेदका व्यवहार देखा नहीं जाता। समयभेदसे भी उसका भेद नहीं हो सकता, क्योंकि, वर्तमान कालको विषय करनेवाली बध्यमान वेदनामें कालके बहुत्वकी सम्भावना ही नहीं है । इस कारण बध्यमान वेदनाके बहुवचन नहीं है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । जीवबहुत्व उदीर्ण वेदनाका भी बहुत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा व्यवहार नहीं पाया जाता । प्रकृतिबहुत्वसे भी उदीर्ण वेदनाका बहुत्व असम्भव है, क्योंकि, एक ही प्रकृतिकी विवक्षा है । अतएव एक मात्र कालबहुत्वका आश्रय करके बहुवचनसूत्रके भंगों की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदनाऐं हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ ( १ ) । अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयों में बाँधी गई कथंचित् उदीर्ण वेदनाऐं हैं। इस प्रकार इस सूत्रके दो ही भंग हुए (२) । कथंचित उपशान्त वेदनायें हैं ॥ ३४ ॥ इस सूत्र भंगों की प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- एक जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त वेदनाएं हैं। इस प्रकार एक भंग हुआ ( १ ) । अथवा अनेक जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई कथंचित् उपशान्त वेदनाऐं हैं । इस प्रकार इस सूत्र के दो ही भंग हैं (२) । अब दोके संयोगकी प्ररूपणा के लिये आगेका सूत्र कहते हैं कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है ।। ३५ ॥ इस सूत्र के अर्थका कथन करते समय पहिले बध्यमान और उदीर्ण दोनोंके संयोगरूप सूत्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001406
Book TitleShatkhandagama Pustak 12
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1955
Total Pages572
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy