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४, २, ७, ११७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुभं
रदी अणंतगुणहीणा ॥ ११२॥ कुदो ? माया-लोभ-तिवेदपुरंगमत्तादो । हस्समणंतगुणहीणं ॥ ११३॥ कुदो ? रदिपुरंगमत्तादो।
देवाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११४ ॥ कुदो ? साभावियादो। णिरयाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११५ ॥ कुदो ? देवाउपेक्खिदण अप्पसत्थभावादो। मणसाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११६ ॥
णिरयाउअस्सेव मणुसाउअस्स दीहकालमुदयाणुवलंभादो । णिरयाउआदो मणुसाउअं पसत्थमिदि अणंतगुणं किण्ण जायदे ? ण, पसत्थभावेण जणिदाणुभागादो दीहकालादयाणबंधणाणुभागस्स पाधणियादो ।
तिरिक्खाउअमणंतगुणहीणं ॥ ११७॥ कुदो ? मणुस्साउआदो तिरिक्खाउअस्स अप्पसत्थत्तदंसणादो। एवमुक्कस्सओ चउसहिपदियो महादंडओ कदो भवदि । उससे रति अनन्तगुणी हीन है ॥ १५२ ॥ क्योंकि, वह माया, लोभ और तीन वेद पूर्वक होती है। उससे हास्य अनन्तगुणा हीन है ।। ११३ ॥ क्योंकि, वह रतिपूर्वक होता है। उससे देवायु अनन्तगुणी हीन है ॥ ११४ ॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उससे नारकायु अनन्तगुणी हीन है ।। ११५ ।। कारण कि वह देवायुकी अपेक्षा अप्रशस्त है। उससे मनुष्यायु अनन्तगुणी हीन है ॥ ११६ ॥ कारण कि नारकायुके समान मनुष्यायुका बहुत समयतक उदय नहीं पाया जाता । शंका -- चूंकि नारकायुकी अपेक्षा मनुष्यायु प्रशस्त है, अतः वह उससे अनन्तगुणी क्यों
'समाधान-नहीं, क्योंकि, यहाँ प्रशस्ततासे उत्पन्न अनुभागकी अपेक्षा बहुत समय तक । रहनेवाले उदय निमित्तक अनुभागकी प्रधानता है।
उससे तिर्यगायु अनन्तगुणी हीन है।। ११७॥ कारण कि मनुष्यायुकी अपेक्षा तिर्यगायुके अप्रशस्तता देखी जाती है। इस प्रकार उत्कृष्ट चौंसठ पदवाला महादण्डक समाप्त होता है।
नहीं होती?
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